Monday, December 24, 2012

जरूरी है शांति और धैर्य


बमुश्किल दो साल के भीतर चार बड़े आंदोलन.. पहले स्वामी रामदेव, फिर टीम अन्ना, इसके बाद रामदेव और अब यह स्वत:स्फूर्त जनांदोलन .. सामूहिक दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी देने की मांग को लेकर। इसके पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं आई कि नई दिल्ली में धारा 144 लगाई जाए, जगह-जगह बैरीकेडिंग की जाए और शहर को छावनी में तब्दील कर दिया जाए। पर अब स्थिति यहां तक पहुंच गई तो लगता है कि पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा है। भारत की जनता आसानी से अपना धीरज नहीं खोती है। खराब से खराब स्थितियों में भी उसे अपना धीरज बनाए रखने के लिए जाना जाता है। इसने चरमसीमा तक महंगाई झेली और झेले जा रही है, बेरोजगारी झेल रही है, भ्रष्टाचार झेल रही है, आतंकवाद और अराजकता झेल रही है, लेकिन अब .. बहन-बेटियों की इज्जत पर हाथ डालना और उसमें भी दरिंदगी की सारी हदें पार कर जाना.. आखिर कहां तक कोई बर्दाश्त करेगा? बर्दाश्त की सारी हदें जब पार हो गईं और नेताओं ने जनता के विश्वास की सारी हदें तोड़ दीं तो लोगों के पास चारा भी आखिर क्या था? वाकई अब तो न केवल सरकार, बल्कि व्यवस्था के साथ-साथ पूरा देश मुश्किल में फंस गया है। युवा भावनाओं के उबाल का यह दौर वास्तव में जिम्मेदार लोगों के धीरज और संयम की परीक्षा का दौर है।

विपक्ष से लेकर सरकार तक सभी युवाओं के आक्रोश को सही ठहरा रहे हैं। किसी में इतना साहस नहीं है, जो अपना दामन बचाने के लिए औपचारिक तौर पर भी यह कहने की हिम्मत जुटा सके कि युवाओं का इतना गुस्सा करना गलत है। कोई कहे भी कैसे? यह केवल किसी एक कारण से तो है नहीं। गौर से देखा जाए तो जो दरिंदगी हुई है, उसके पीछे भी केवल एक ही कारण नहीं है। इसके पीछे भी कई कारण हैं और इसके लिए जिम्मेदार केवल वे दरिंदे ही नहीं हैं। यहां तक कि दरिंदों के साथ-साथ केवल पुलिस तक को भी जिम्मेदार ठहराने से काम नहीं चलेगा। असलियत यह है कि इसके लिए हमारी पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था में पुलिस भी शामिल है, परिवहन विभाग, प्रशासन और शासन भी। असल में यह सबकी अनदेखी की प्रवृत्ति का नतीजा है।