Saturday, November 23, 2013

दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ

ओस की एक बूँद-सी होती हैं बेटियाँ
स्पर्श खुरदुरा हो तो रोती हैं बेटियाँ
रौशन करेगा बेटा तो बस एक ही कुल को
दो- दो कुलों की लाज को ढोती हैं बेटियाँ
कोई नहीं है दोस्तो! एक-दूसरे से कम
हीरा अगर है बेटा, तो मोती हैं बेटियाँ
काँटों की राह पे ये खुद ही चलती रहेंगी
औरों के लिए फूल ही बोती हैं बेटियाँ
विधि का विधान है, यही दुनिया की रस्म है
मुट्ठी में भरे नीर-सी होती है बेटियाँ.

Saturday, November 2, 2013

साँवली बिटिया .

रंग सांवला बिटिया का 
कैसे ब्याह रचाऊँगा 
बेटे जो होते सांवले...
शिव और कृष्णा उन्हें बनाता 
बेटी को क्या उपमा दिलाऊंगा ....

पढ़ी लिखी संस्कारी है वो
गुणों से सुसज्जित न्यारी है वो
मेरी तो राजदुलारी है वो
पर अपने रंग से थोड़ा सा लजाई है वो .......

गोरा तो गोरी ही चाहे
काले को भी गोरी ही मनभाए
सांवल किसी को क्यूँ ना सुहाए
प्रेम का रंग क्यूँ कोई देख ना पाए ......

वो भी सृजन है देवों का
करुणा , ममता उसमे भी है
घर की लक्ष्मी भी बन दिखाएगी वो
ग़र समझो उसे की वो अपनी है....

सांवली है पर संध्या है वो..
भोर की पहली सांवली बदरिया है वो
मेरी तो राजदुलारी है वो
सांवल है तो क्या??
बिटिया बड़ी ही प्यारी है वो......

पढ़ी लिखी संस्कारी है वो
गुणों से सुसज्जित न्यारी है वो .

आप सभी को सहपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ

आओ इसबार दिवाली कुछ यूँ मनाएँ
चारों ओर खुशियों के दीप जलाएँ ....

मन के अँधेरे दूर भगाएँ 
मन में नया विश्वास जगाएँ ...

रोते हुए बच्चों को हसाएँ
सुने आँगन में प्यार के दीप जलाएँ ...

एक दीप जलाकर ,, एक पौधा लगाएँ
रोशनी के साथ ही हरियाली फैलाएँ ...

भूखे को रोटी खिलाएँ
भटके को राह दिखाएँ ...

भ्रष्टाचार को दूर भगाएँ
देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाएँ ...

निराशाओं में आशा बधाएँ
बुराइयों से खुद को बचाएँ ...

हाथ मिलाएँ , प्रेम बढाएँ

मन के सारे भ्रम मिटाएँ ...

अच्छा सीखे और सिखाएँ
आओ इसबार दिवाली कुछ यूँ मनाएँ
चारों ओर खुशियों के दीप जलाएँ ...

Wednesday, October 23, 2013

साले, लड़कियों का ठेकेदार बनता है...


ब्लूलाइन बस में स्कूली ड्रेस पहने बैठीं दो लड़कियां। उम्र 13-14 साल रही होगी। उनके ठीक पीछे एक काफी बूढ़ी महिला। बस में 20-22 लोग और भी बैठे थे। सात-आठ मुस्टंडे भी बस में सवार थे। उनमें से दो लड़के, पूरी तरह सहमी हुई लड़कियों के सामने खड़े होकर उनसे बदतमीजी कर रहे थे। एक लड़का लड़कियों के पीछे की सीट पर (जिस पर वृद्ध महिला बैठी था) खड़ा होकर पीछे की ओर से उनसे छेड़खानी कर रहा था। पहली बार ऐसी घटना आंखों के सामने घट रही थी...

बात तब की है जब मैं एक न्यूज चैनल में काम करता था। दिल्ली के झंडेवालां इलाके में मेरा ऑफिस था। सुबह की शिफ्ट में काम करके घर लौट रहा था। जनवरी की सर्द शाम थी, कोई चार-साढ़े चार का वक्त रहा होगा। सामने से एक ब्लूलाइन बस गुजर रही थी, जिसमें आमतौर पर मैं नहीं चढ़ता था क्योंकि वह मेरे रूट की नहीं थी। फिर सोचा कि इंतजार क्या करना, थोड़ी दूर तक इससे चला जाता हूं, आगे जाकर बस बदल लूंगा। बस में पीछे के दरवाजे से चढ़ गया। बस के अंदर चढ़कर सबसे पीछे की खाली सीट पर बैठ गया। अपने ख्यालों में ही खोया हुआ था कि वृद्ध महिला की आवाज ने ध्यान खींचा।

दो मासूम बच्चियां सात-आठ बदमाश से दिखने वाले लड़कों के बीच घिर गई थीं, बुढ़िया उन्हें बचाने की गुहार लगा रही थी। न ड्राइवर, न कंडक्टर और न ही बस में किसी और यात्री ने उसकी तरफ ध्यान दिया। देख सभी रहे थे, लेकिन तमाशबीन बनकर। बस का सीन किसी फिल्म की तरह मेरी आंखों के आगे से गुजर रहा था। दिमाग का एक हिस्सा बोला, 'तुम भी सबकी तरह चुपचाप बैठे रहो, गामा बनने की जरूरत नहीं। सात-आठ हट्टे-कट्टे लड़कों के सामने तुम्हारी क्या बिसात? 20 दिन बाद तुम्हारी शादी है, किसी ने चाकू-वाकू ही मार दिया तो? गुंडों का क्या भरोसा। तुम्हारी बहन लगती हैं क्या? लड़की को छोड़कर तुम्हारे ऊपर पिल पड़ेंगे, तब क्या करोगे? शांत बैठे रहो और भगवान से मनाओ कि यह लड़के खुद ही बस से उतर जाएं।'

दिमाग का दूसरा हिस्सा बोला, वाह भई वाह, ऐसे तो बड़े राजपूत बने घूमते हो? आंखों के सामने ही दो लड़कियों से छेड़खानी हो रही है, खुलेआम, और तुम संत बने प्राणायाम कर रहे हो। उठो, कुछ करो नहीं तो बस से उतर जाओ और शर्म से मर जाओ, नीच इंसान, तमाशबीन। इतनी ठंड में भी शरीर पसीने से भीग गया, कॉलर के नीचे गर्दन पर गर्मी महसूस होने लगी, कान लाल हो गए।

यह सब बस कुछ सेकंडों के भीतर ही हुआ। डरी हुई लड़कियां चीख रही थीं। बुढ़िया भी चिल्ला रही थी, बदमाश लड़कों से विनती कर रही थी, बेटा इन लड़कियों को छोड़ दो, तुम्हारी भी मां-बहन होंगी। यात्रियों से कह रही अरे कोई तो उठो, इनको बचाओ। लड़के उस बुढ़िया को भी डपट देते थे। उस समय क्या शब्द बोले थे, यह तो अक्षरश: याद नहीं लेकिन मैंने उन लड़कों को तेज आवाज में लड़कियों से दूर होने और बस से नीचे उतर जाने को कहा। कंडक्टर की ओर देखकर चिल्लाया, बस को मंदिर मार्ग थाने की तरफ मोड़ लो। कंडक्टर ने मेरी बात अनसुनी कर दी।

लड़कों का स्टॉप शायद पीछे ही छूट गया था, मुझे घूरते हुए वह आगे के दरवाजे से उतरने लगे। ट्रैफिक में फंसी बस बमुश्किल रेंग रही थी। उतरते-उतरते, उनमें से कुछ लड़के पीछे के दरवाजे से फिर बस में चढ़ने लगे, शायद यह सोचकर, कि जाते-जाते एक बार और लड़कियों को मजा चखा दिया जाए। पानी सर से ऊपर गुजर चुका था। मैं पीछे के गेट पर ही खड़ा था। मैंने कहा, चलो अब बहुत हो गया, भागो यहां से। उनमें से एक बोला, साले, तू बड़ा ठेकेदार बन रहा है, बहन के... उतर नीचे, तेरी....। मेरा दोस्त हॉलैंड से मेरे लिए जूते खरीद कर लाया था। काफी भारी और मजबूत। मन ही मन सोचा, जूते का सही इस्तेमाल आज ही होना है। सबसे नीचे के पायदान पर खड़े उस लड़के के सीने पर एक जबर्दस्त ठोकर मारी। वह हवा में उड़ता हुआ सड़क पर जा गिरा, उठा नहीं। मेरा दिल धड़क कर रह गया, कहीं मर न जाए, इतनी जोर से क्यों मारा!

अपने साथी की यह हालत देखकर बाकी तो मेरे खून के प्यासे हो गए। दो-तीन पीछे के दरवाजे से और बाकी दौड़कर आगे के दरवाजे की ओर लपके, शायद यह सोचकर कि बस में घेर कर इस चश्मे वाले की मरम्मत की जाए। पीछे के दरवाजे से मैंने उनको घुसने नहीं दिया। अंधाधुंध किक बरसाता गया। जब वह ऊपर नहीं चढ़ पाए तो सड़क के किनारे से पत्थर उठा कर फेंकने लगे। खुशकिस्मती से, उनके पत्थर किसी को नहीं लगे। तब तक आगे के गेट से चढ़कर दो-तीन लड़के बस में घुस गए।

बुढ़िया चीख रही थी, कोई तो उठो, वह लड़का अकेले इतने लोगों से लड़ रहा है, कोई तो साथ दो। जो लड़के अंदर घुसे, शायद वे भी पीछे के दरवाजे पर अपने साथियों की हालत देखकर घबरा गए थे। मुझे मारने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उनके हाथ, उनका साथ नहीं दे रहे थे। एक के हाथ में मेरा स्वेटर आ गया तो वह गले से नीचे तक बीच से फट गया। एक-आध मुक्के पीठ और कंधे पर मुझे पड़े। लेकिन अब मेरा डर निकल चुका था। तुम दो मारोगे तो मैं चार मारूंगा, यह सोचकर दनादन हाथ और ल���त चलाए पड़ा था। फिर शायद उन लड़कों की हिम्मत जवाब दे गई। तब तक बस भी रफ्तार पकड़ चुकी थी। लड़के मुझे गालियां देते हुए भाग रहे थे। दिल्ली की बस में लड़कियों से छेड़छाड़ की एक और खबर बनते-बनते रह गई

यह कहानी बताने का मकसद

यह घटना पांच साल पहले की है, शायद दोबारा ऐसा वाकया मेरे सामने हो तो मैं ऐसी हिम्मत न दिखा पाऊं। लेकिन यदि आप युवा हैं तो फिर तमाशबीन मत बनिए, चुप मत बैठिए। एक सच्चा आदमी दसियों बदमाशों पर अकेले ही भारी है। यह मत सोचिए कि मुझे क्या होगा। जैसे झूठ के पांव नहीं होते वैसे ही गुंडे-बदमाशों के भी पांव हिम्मत वालों के सामने उखड़ जाते हैं। यह भी मत सोचिएगा कि वह आपकी बहन नहीं लगती। कल को आपकी बहन के साथ ऐसा हुआ तो और लोग भी ऐसा ही सोच लेंगे। उम्मीद है निराश नहीं करेंगे। नहीं तो क्या है, आप भी गाना गाइए, यह बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती... और कोसते रहिए शीला दीक्षित से लेकर युद्धवीर सिंह डडवाल को।

Tuesday, October 15, 2013

हजार-हजार के आठ नोट

आज उसे पगार मिली थी। सुबह से वह काफी खुश था। हो भी क्यों न…. इस दिन का तो वह पिछले दस दिन से इंतजार कर रहा था। ये दस दिन उसने काटे ,यह तो बस वही जानता है। शाम को बड़े बाबू ने जब हजार- हजार के आठ नोट दिए तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा और वह झूमता हुआ फैक्ट्री के गेट से बाहर निकल गया। जेब में पड़े नोटों को वह कस कर इस तरह पकड़े हुआ था कि कहीं गिर न जायें। अभी वह थोड़ी दूर ही चला होगा कि उसे इंतजार करता हुआ एक चेहरा दिखाई दिया। वह चेहरा उसके दूधिए का था,जिसका वह पिछले महीने भी बिल नहीं चुका पाया था। उसे देखकर उसके चेहरे खुशी की रेखाएं मिटने लगीं और वह उससे नजरें बचा कर जाना ही चाहता था, तभी उसे सामने से आता हुआ एक और चेहरा दिखाई दिया । यह चेहरा राशन के दुकानदार का था, जिससे वह पूरे महीने राशन उधार लेता था। वह उससे भी बच कर निकलना चाहता था कि एक और चेहरा उसकी ओर बढऩे लगा। यह चेहरा था – किराया मांगता हुआ मकान मालिक का। आखिर उसने अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लिया लेकिन हथेलियों में भी कतारबद्ध चेहरे दिखाई देने लगे। असमय उभर आईं झुर्रियों भरा उसकी पत्नी का चेहरा….,बीमार पड़ी बूढ़ी मां का खांसता चेहरा….,अभावग्रस्त दोनों बच्चों के कमजोर चेहरे,जो आज सुबह से ही उसके लौटने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। धीरे-धीरे उसके उसके पैर बोझिल होते गये,उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछलाने लगीं। वह जेब में पड़े नोटो को मु_ी में और कसते हुए सोचने लगा….
दो महीने का दूध का बिल-सत्रह सौ रुपये ,राशन का बिल- तीन हजार रुपये,मकान का किराया-बारह सौ रुपये, बिजली का बिल-चार सौ रुपये, गैस का सिलेंडर-तीन सौ पैंसठ रुपये, दोनों बच्चों की फीस पांच सौ रुपये और सब्जी के लिए भी तो चाहिए रोज कम से कम पच्चीस-तीस रुपये….. बाकी खर्चा……..???????

Monday, September 2, 2013

काम वाली बाई

लगभग 2 हफ्ते पहले मेरी मकान मालकिन की काम वाली बाई, जो कि अपने पति के शराब पीकर आने, उनसे पैसे छीनने, बिना वजह मारने, और उनकी बेटियों को ना पढ़ने देने से पिछले कई सालों से पीड़ित थी, मेरे पास मदद के लिए आई थी, उनको महिला थाने जाकर पुलिस सहायता चाहिए थी !

उस दिन उनके पति ने उन्हें इस वजह से पीटा था क्योंकि रात को 1 बजे जब उनका पति घर लौटकर आया तो वो नींद लगने की वजह से दरवाज़ा नहीं खोल पायीं और उनकी सास ने दरवाज़ा खोला, जिससे उनके पति को गुस्सा आ गया कि उनकी माँ आधी रात को परेशान हुईं ! सुबह 8 बजे जब अपने एक तरफ के पूरे चेहरे पर मार का निशान लेकर रोती हुईं वो आई तो मैंने उन्हें दिलाशा दी और पुलिस की मदद मिलेगी ऐसा आश्वाशन दिया ! और वाकई ख़ुशी की बात है कि पुलिस की मदद मिली !

आज फिर मिली तो मैंने पूछा कि अभी सब कैसा चल रहा है, तो उन्होंने कहा कि ""अभी सब ठीक है, वो डर गया है मेरे इस कदम से, और उसने पुलिस काउंसलिंग के दौरान पुलिस के डांटने और चेतावनी देने पर, पुलिस से वादा भी किया है कि अब वह मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाएगा !""

आज दी ख़ुश थी और मैं भी

अन्याय सहते रहना भी उतना ही ग़लत है जितना अन्याय करना... और कई बार डराने से भी काम चल जाता है, सामने वाले को सिर्फ ये अहसास कराने की ज़रुरत है कि हमें बोलना आता है और ज़रुरत पड़ेगी तो हम अपने लिए ज़रूर बोलेंगे... हम कमज़ोर नहीं

नजरिया का फर्क

एक गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे। उधर से एक साधु गुजरे। उन्होंने एक मजदूर से पूछा- यहां क्या बन रहा है? उसने कहा- देखते नहीं पत्थर काट रहा हूं? साधु ने कहा- हां, देख तो रहा हूं। लेकिन यहां बनेगा क्या? मजदूर झुंझला कर बोला- मालूम नहीं। यहां पत्थर तोड़ते- तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा। साधु आगे बढ़े। एक दूसरा मजदूर मिला। साधु ने पूछा- यहां क्या बनेगा? मजदूर बोला- देखिए साधु बाबा, यहां कुछ भी बने। चाहे मंदिर बने या जेल, मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदूरी के रूप में १०० रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है। साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदूर मिला। साधु ने उससे पूछा- यहां क्या बनेगा? मजदूर ने कहा- मंदिर। इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था। इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूं। ये सारे मजदूर इसी गांव के हैं। मैं एक- एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूं तो छेनी की आवाज में मुझे मधुर संगीत सुनाई पड़ता है। मैं आनंद में हूं। कुछ दिनों बाद यह मंदिर बन कर तैयार हो जाएगा और यहां धूमधाम से पूजा होगी। मेला लगेगा। कीर्तन होगा। मैं यही सोच कर मस्त रहता हूं। मेरे लिए यह काम, काम नहीं है। मैं हमेशा एक मस्ती में रहता हूं। मंदिर बनाने की मस्ती में। मैं रात को सोता हूं तो मंदिर की कल्पना के साथ और सुबह जगता हूं तो मंदिर के खंभों को तराशने के लिए चल पड़ता हूं। बीच- बीच में जब ज्यादा मस्ती आती है तो भजन गाने लगता हूं। जीवन में इससे ज्यादा काम करने का आनंद कभी नहीं आया। साधु ने कहा- यही जीवन का रहस्य है मेरे भाई। बस नजरिया का फर्क है। कोई काम को बोझ समझ रहा है और पूरा जीवन झुंझलाते और हाय- हाय करते बीत जाता है। लेकिन कोई काम को आनंद समझ कर जीवन का लुत्फ ले रहा है। जैसे तुम .

Monday, August 5, 2013

भिखारी

एक बार एक आदमी टैक्सी का इंतेजार कर रहा था
एक भिखारी उसके पास आया और पैसे माँगने लगा
उसने भिखारी को नजरंदाज किया
लेकिन भिखारी पीछा छोड़ने वाला नहीं था
वह बार बार पैसे माँग रहा था
आदमी के समझ में आ गया की यहऐसे नहीं मानेगा
अचानक उसके दिमाग में एक विचार आया...
उसने भिखारी से कहा :
"मेरे पास पैसे नहीं है, यदितुम मुझे बताओ कि तुम उन
पैसो का क्या करोगे तो मैं मदद कर सकताहूँ"
भिखारी : "मैं एक कप चाय पियुंगा"
आदमी : "मै तुम्हे चाय के बदले सिगरेट दे सकता हूँ"
कह कर उसने जेब से सिगरेट निकाला और भाई की और बढ़ाया
भिखारी : "मैं सिगरेट नहीं पीता यह सेहत के लिये नुक़सानदेह है"
आदमी मुसकुराया और दुसरी जेब से शराब की बोतल निकाल कर
भिखारी से कहा : "ये बोतल ले लो और मजे करो, बहुत
मजा आयेगा"
भिखारी : "शराब दिमाग की सोचको विकृत करता है और लीवर
को नुक़सान पहुँचाता है"
आदमी दुबारा मुसकुराया और भिखारी से बोला :"मैं
कैसीनो जा रहा हूँ, वहाँ कुछ जुगाड़ लगा कर जुआ खेलतेहैं,
जो जीतेंगे वो तुम रख लेना, और मुझे छोड़ देना"
भिखारी ने विनम्रतापुर्वक कहा : "जुआ खेलना बुरी बात है, मैं
जुआ नहीं खेल सकता"
परेशान होकर आदमी ने कहा :"क्या तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे"
भिखारी सोच में पड़ गया, इसके साथ जा कर हो सकता है कुछ
मिले और हो सकता है कुछ ना भी मिले
और शंकित होकर पुछा : "आप मुझे घर क्यों ले जाना चाहते हैं"
आदमी ने जवाब दिया :
"मेरी बीवी हमेशा एक ऐसे आदमी को देखना चाहती है जिसमे कोई
बुरी आदत ना हो, मैं उसे दिखाना चाहता हूँ की बिना बुरी आदत के
आदमी का क्या हाल होता है"..

भोजन करने सम्बन्धी कुछ जरुरी नियम


भोजन करने सम्बन्धी कुछ जरुरी नियम
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१ पांच अंगो ( दो हाथ , २ पैर , मुख ) को अच्छी तरह से धो कर ही भोजन करे !
२. गीले पैरों खाने से आयु में वृद्धि होती है !
३. प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है !किउंकि पाचन क्रिया की जठराग्नि सूर्योदय से 2 ० घंटे बाद तक एवं सूर्यास्त से 2 : 3 0 घंटे पहले तक प्रवल रहती है
४. पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुह करके ही खाना चाहिए !
५. दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है !
६ . पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है !
७. शैय्या पर , हाथ पर रख कर , टूटे फूटे वर्तनो में भोजन नहीं करना चाहिए !
८. मल मूत्र का वेग होने पर,कलह के माहौल में,अधिक शोर में,पीपल,वट वृक्ष के नीचे,भोजन नहीं करना चाहिए !
९ परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए !
१०. खाने से पूर्व अन्न देवता , अन्नपूर्णा माता की स्तुति कर के , उनका धन्यवाद देते हुए , तथा सभी भूखो को भोजन प्राप्त हो इस्वर से ऐसी प्राथना करके भोजन करना चाहिए !
११. भोजन बनने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से, मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाये और सबसे पहले ३ रोटिया अलग निकाल कर ( गाय , कुत्ता , और कौवे हेतु ) फिर अग्नि देव का भोग लगा कर ही घर वालो को खिलाये !
१२. इर्षा , भय , क्रोध, लोभ ,रोग , दीन भाव,द्वेष भाव,के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है !
१३. आधा खाया हुआ फल , मिठाईया आदि पुनः नहीं खानी चाहिए !
१४. खाना छोड़ कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए !
१५. भोजन के समय मौन रहे !
१६. भोजन को बहुत चबा चबा कर खाए !
१७. रात्री में भरपेट न खाए !
१८. गृहस्थ को ३२ ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए !
१९. सबसे पहले मीठा , फिर नमकीन , अंत में कडुवा खाना चाहिए !
२०. सबसे पहले रस दार , बीच में गरिस्थ , अंत में द्राव्य पदार्थ ग्रहण करे !
२१. थोडा खाने वाले को --आरोग्य , आयु , बल , सुख, सुन्दर संतान , और सौंदर्य प्राप्त होता है !
२२. जिसने ढिढोरा पीट कर खिलाया हो वहा कभी न खाए !
२३. कुत्ते का छुवा, बासी , मुह से फूक मरकर ठंडा किया , बाल गिरा हुवा भोजन , अनादर युक्त , अवहेलना पूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करे !
२४. कंजूस का, राजा का,वेश्या के हाथ का,शराब बेचने वाले का दिया भोजन कभी नहीं करना चाहिए
यह नियम आप जरुर अपनाये और फर्क देखें

Saturday, August 3, 2013

बुरे लोग.

पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार करना हर धर्म सिखाता है लेकिन कितने हैं, जो ऐसा करते हैं। पड़ोसियों से अच्‍छा व्यवहार न करने का मतलब है कि आप खुद की और दूसरों की शांति भंग कर रहे हैं। आप जहां भी जाएंगे शांति भंग ही करते रहेंगे। ऐसे लोग हमेशा यदि सोचते रहते हैं कि शांति भंग करने वाला मैं नहीं पड़ोसी ही है, यह जाएगा तभी जीवन में शांति आएगी। ऐसे लोग एक दिन खुद बेघर हो जाते हैं।

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 आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपय्या यानी आमदनी से अधिक खर्च करने वाले उधार लेकर भी जिंदगी बसर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते और एक दिन वे बुरे दौर में फंस जाते हैं। वे सोचते रहते हैं कि आज तो कर लो खर्चा कल से बचत करेंगे या ज्यादा खर्चा नहीं करेंगे। ऐसे लोगों को बुरा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि इनकी वजह से दूसरों का जीवन भी संकट में आ जाता है।

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बहुत से लोग बहुत जल्द ही किसी के बारे में अपनी राय कायम कर उसकी तारीफ या निंदा करने लग जाते हैं, जो कि एक सामाजिक बुराई है। कुछ लोग तो एक-दो मुलाकात में ही किसी के बारे में अपनी राय कायम कर भाषण देने लग जाते हैं।

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आजकल धर्म की बुराई करने का फैशन है खासकर हिंदू धर्म की। लोग हिंदू धर्म की बुराई आसानी से कर सकते हैं, ‍क्योंकि यह धर्म लोगों की स्वतंत्रता को महत्व देता हैं। किसी देवी-देवता और ऋषि-मुनि की बुराई करने वाले लोग यह नहीं जानते हैं कि वे सभी देवी-देवता सुन रहे हैं जिनकी आप बुराई कर रहे हैं, मजाक उड़ा रहे हैं या जिन पर आप चुटकुले बना रहे हैं। जिन्होंने गहरा ध्यान किया है ऐसे लोग जानते हैं कि देवता होते हैं और वे सुनते हैं। ऐसे लोगों को सजा भी मिलती है। देवताओं का साथ छोड़ देना ही सजा है
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 लाखों लोग ऐसे हैं, जो दूसरों का धन हड़पने की इच्छा रखते हैं या हड़प ही लेते हैं। लाखों लोग ऐसे भी हैं, जो दूसरों का हक मारते रहते हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन अब उन लोगों की संख्‍या भी बढ़ती जा रही है, जो दूसरों के विचार चुराकर उसे खुद का बताकर प्रस्तुत करते हैं। दूसरों का आइडिया चुराकर उसे खुद का आइडिया कहकर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह का प्रयास भी धर्म में निषिद्ध कर्म कहा गया है।


बहुत से लोग ऐसे हैं, जो सिनेमा, नशा, पान आदि पर अनाप-शनाप खर्चा कर देते हैं लेकिन अपने द्वार या दुकान पर आए फकीरों और गरीबों को धक्का देकर भगा देते हैं।
ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि आज नहीं, कल यह कार्य कर लेंगे यानी किसी काम को ये सोचकर अधूरा छोड़ना कि फिर किसी दिन पूरा कर लिया जाएगा, यह लापरवाही जीवन में असफलता का कारण बन जाती है।

अहंकारी

खुद को दूसरों से बेहतर समझने वाले अहंकारी लोगों की भरमार है। ऐसे लोग अपनी अक्ल को सबसे बढ़कर समझते हैं। परमेश्वर ने सभी को दो हाथ, कान, नाक, दिमाग बनाकर दिया है। ज्यादा पढ़ने और सोचने या धन अर्जित करने से कोई दूसरों से बेहतर नहीं बन जाता। बड़े से बड़े ज्ञानियों के भी सुख-दुख गरीबों और अज्ञानियों के समान ही हैं।

शिक्षक

हम सभी जानते हैं कि भगवान और माता-पिता से भी बड़ा दर्जा गुरु या शिक्षक का माना जाता है। शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता ही है इतना पवित्र, जिसमें जहां शिक्षक अपने सारे अच्छे गुण अपने विद्यार्थियों को सौंपना चाहता है वहीं विद्यार्थी भी उनका अनुसरण करते हुए अपने भविष्य की दिशा तय करते हैं।

शिक्षक हमें पूरे साल भर बहुत प्यारी-प्यारी बातें बताते हैं, तो एक दिन बच्चों को भी उनके लिए प्यारा-सा काम करना चाहिए। अगर हम अपने शिक्षक के लिए क्लास में अच्छा रिजल्ट लाते हैं तो सबसे ज्यादा खुशी उन्हें ही होती है। पर सिर्फ एक बार ही ऐसा क्यों?

क्या आपने सोचा है कि आपके शिक्षक (टीचर्स) आपसे क्या उम्मीद रखते हैं। इस क्रम में शिक्षक तो सभी को सीख देते ही हैं लेकिन कभी-कभी छात्र-छात्राएं ऐसे कार्य भी कर जाते हैं, जिनसे उनके शिक्षकों की छवि धूमिल हो जाती हैं। 
 आप अपने टीचर्स के पढ़ा-लिखा इंसान बनने का विश्वास भी दिलाएं, तभी आपके टीचर्स को आप पर गर्व होगा

बदला

मच्छर परिवार बहुत परेशान था। दिन पर दिन महंगाई बढ़ती जा रही थी और परिवार के सब प्राणी अब तक बेरोजगार थे। आखिर मांग-मांग कर कब तक गाड़ी खिचती। फिर कोई कब तक किसी को देता रहेगा।

मच्छरी ने अपने पति को सलाह दी कि 'क्यों न कोई धंधा चालू कर दिया जाए, बैठे-बैठे कौन खिलाएगा। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। दस बच्चों को मिलाकर हम लोग बारह लोग हैं, धंधा करेंगे तो घर के सब लोग ही व्यापार संभाल लेंगे और नौकरों की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।'

'सलाह तो तुम्हारी उचित है परंतु कौन-सा धंधा करें, धंधे में पूंजी लगती है जो हमारे पास है नहीं - मच्छर बोला।

'ऐसे बहुत से धंधे हैं जिसमें थोड़े-सी पूंजी में ही काम चल जाता है। क्यों न हम पान की दुकान खोल लें। पूंजी भी नहीं लगेगी। सुबह थोक सामान ले आएंगे और शाम को बिक्री में से उधारी चुका देंगे।' - मच्छरी ने तरीका सुझाया। 

 
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'मगर क्या गारंटी की दुकान चल ही जाएगी?' - मच्छर बोला।
हम लोग पान के साथ तंबाकू, गुटका किमाम इत्यादि सब सामान रखेंगे, इन वस्तुओं की बहुत डिमांड है, बिक्री तो होगी ही।' - मच्छरी बोली।'

'बात तो सही कह रही हो। कल से दुकान प्रारंभ कर देते हैं।' इतना कहकर वह बाजार से दुकान का सब सामान आवश्यकतानुसार ले आया। दुकान चालू कर दी गई। वह और उसकी पत्नी दुकान पर बैठते। बच्चे भी बैठने लगे। बढ़िया पान लगते, तंबाकू और गुटखों के पैकेट बनते और देखते ही देखते दुकान का सारा सामान बिक जाता। मजे से खर्च चलने लगा।

एक दिन मच्छर ने महसूस किया कि उसके बच्चे दिन भर खांसते रहते हैं और कमजोर होते जा रहे हैं। उसने कारण जानने कि कोशिश की तो मालूम पड़ा कि बच्चे जब भी दुकान पर बैठते हैं, लगातार तंबाकू और गुटखा खाते रहते हैं। मच्छर परेशान हो गया। बच्चों को समझाया कि बेटे यह तंबाकू बहुत हानिकारक होती है, अधिक खाने से जान भी जा सकती है। किंतु बच्चे नहीं माने

 ग्राहक आते खुद तो पान-तंबाकू खाते ही, मच्छर पुत्रों को भी प्रेरित करते। आखिरकार एक-एक कर मच्छर के दसों पुत्र स्वर्गवासी हो गए। मच्छर ने गुस्से के मारे दुकान बंद कर दी।

आखिर उसके बच्चों की मृत्यु के जबाबदार इंसान ही तो थे, क्योंकि उनकी प्रेरणा से ही भोले-भाले बच्चे तंबाकू खाना सीखे थे।

ऐसा सोचकर मच्छर ने खुले आम घोषणा कर दी कि आगे से मच्छर‌ अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए कोई काम नहीं करेंगे सिर्फ आदमियों का खून चूसेंगे। तब से आज तक मच्छर इंसानों का खून चूस रहा है

swami ji

सभी मरेंगे ही, यही संसार का नियम है। साधु हो या असाधु, धनी हो या दरिद्र सभी मरेंगे। चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।

पछतावा

'ये जूते कितने के हैं?'
'साहब, आठ सौ पचास रुपए के।'
दुकानदार से भाव सुनकर धीरज बाबू ने अपने बेटे को धीरे से समझाया 'पुनीत! मैं तुम्हें दूसरी दुकान लिए चलता हूँ... ये जूते बहुत महँगे हैं।' दोनों उस दुकान से बाहर निकलने लगे।

'अरविंद के पिताजी और मेरे पिताजी एक ही पद पर हैं लेकिन दोनों में कितना अंतर है, उसके पिताजी उसकी हर माँग पूरी करते हैं, उसकी हर चीज कितनी अच्छी होती है और मेरे पिताजी को खरीदते समय कितना सोचते हैं?'

अपने मन पसंद जूतों को न खरीद पाने के कारण पुनीत मन ही मन झल्ला रहा था और अपने पिताजी की कंजूसी पर उसे क्रोध भी आ रहा था।

'मैं जो कपड़े पहनता हूँ, उससे अच्छे तुम्हें पहनाता हूँ। तुम तसल्ली रखो, मैं तुम्हें अच्छे जूते दिलवाऊँगा। बेटा! ईमानदारी के पैसों को फिजूल में खर्च करने की मैं हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ। तुम बड़े होकर समझोगे कि ईमान और बेईमानी के धन में क्या फर्क होता है।' अपनी बात पूरी कर पिताजी ने पुनीत के सिर पर हाथ रख दिया। पुनीत चाहकर भी निगाहें ऊपर नहीं कर पा रहा था।

पिताजी की बात सुनकर पुनीत को अपनी सोच पर पछतावा हो रहा था, शायद इसीलिए उसके मन में अपने और अरविंद के पिताजी अब उसके लिए बुराई और अपने पिताजी श्रद्धा के पात्र बन गए थ

Saturday, July 27, 2013

हम तो गरीब लोग हैं,

वह साइकिल पर अपने एक तरफ गैस का छोटा सिलेंडर बाँध कर जा रहा था. उसके आगे भी हैंडल पर जो समान टंगा था उससे साफ लग रहा था की वह कोई गैस आदि को साफ करने और उनकी मरम्मत करने का काम करता होगा. एक जगह ट्रैफिक जाम था और संभाल कर चलते रहने के बाद भी उसके सिलेंडर का हिस्सा जाम में फंसी कार से टकरा गया. उसे पछतावा हुआ पर यह उसके चेहरे पर आयी शिकन से लग रहा था.
कार के अन्दर से चूड़ीदार पायजामा और सफ़ेद कुरता पहने एक आदमी निकला उसने अपनी कार देखी और उसपर लगे खरोंच के निशान दिखे तो उसे गुस्सा आगया. और उसने साइकिल वाले को पास बुलाया, उसके पास आते ही उसने उसकी गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया. उस गरीब की आंखों में पानी भर आया, और अपने गाल पर हाथ रखता हुआ वहाँ से चला गया.
एक सज्जन जो इस घटनाक्रम को देख रहे थे उस साइकिल वाले के पास गए और बोले-’चलो, पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ. उसको अदालत में घसीट कर दिखाएँगे कि किस तरह थप्पड़ मारा जाता है.’
उस साइकिल वाले ने लगभग रोते हुए कहा-.बाबूजी, जाने दीजिये. हम गरीबों की इज्जत क्या है? यह लोग तो ऐसे ही हैं. इन जैसे लोगों के बाप अंधे होकर अंधी कमाई कर रहे हैं और इनसे में गरीब कहाँ तक मुकाबला करूंगा?”
वह चला गया और वह सज्जन उसे जाते देखते रहे . एक दूसरा साइकिल वाला सज्जन भी उनके पास आया और बोला-’वह सही कह रहा था. इनका कोई क्या कर सकता है.
उन सज्जन ने कहा-’भाई, हकीकत तो यह है कि इस तरह तो गरीब का सड़क पर चलना मुशिकल हो जायेगा. अगर यह कार वाला मारकर उसे उडा जाता तो कुछ नहीं और उसकी साइकिल से थोडी खरोंच लग गई तो उसने उसे थप्पड़ मारा. इस तरह तो गरीब जब तक लड़ेगा नहीं तो जिंदा नही रह पाएगा.’
वह कार वाला दूर खडा था. दूसरा साइकिल वाला बोला-’साहब वह गरीब आदमी कहाँ भटकता? आप मदद करते तो आपको भी परेशानी होती. हम तो गरीब लोग हैं, मैं साइकिल पर फल बेचता हूँ पर दिन भर अपमान को झेलता रहता हूँ. हम लोगों को आदत है, यह सब देखने की.’
उन सज्जन ने आसमान की तरफ देखा और गर्दन हिलाते हुए लंबी साँसे लेते हुए कहा -’लोग समझते नहीं है को जो गरीब काम कर रहे हैं, वह अमीरों पर अहसान करते हैं क्योंकि वह कोई अपराध नहीं करते. शायद यही कारण है कि आजकल कोई छोटा काम करने की बजाय अपराध करना पसंद करते हैं. जो इस हालत में भी छोटा काम कर रहे हैं उन्हें तो सलाम करना चाहिऐ न कि इस तरह अपमानित करना चाहिए. जब तक अमीर लोग गरीब का सम्मान नहीं करेंगे तब तक इस देश में अपराध कम नहीं हो सकता.
वह सज्जन वहाँ से निराशा और हताशा में अपनी गर्दन हिलाते हुए चले गए, पीछे से दूसरा साइकिल वाला उनको जाते हुए पीछे से खडे होकर देखता रहा.

Friday, July 26, 2013

बिल्लू दादा

RAJU  नया -नया DILLI  आया था गाँव से , पुलिया के नीचे आदमियों की भीड़ ज्यादा दिखी तो वहीं बगल मैं लगा लिया मूंगफली का ठेला, अभी बोहनी भी नही हुयी थी किएक आदमी आया और ठेले मैं से मुठी भर कर मूंगफली उठाई और चलता बना, रामू ने उसे आवाज देकर पैसे के लिए कहा तो भद्दी सी गाली देते हुए RAJU  को मरने के लिए झपटा, RAJU भी कोई कम नही था, अभी-अभी बीसवें साल मैं कदम रखा ही था, सरीर भी माता-पिता के लाड और झुमरी गायके दूध कि बदोलत आसपास के गाँव मैं किसी का नही था ऐसा पाया था, ऐसे मैं वो कहाँ दबने वाला था, एक ही दावमैं उस आदमी को जमीन दिखा दी, और फ़िर जो लगा दे दनादन जो उसे तबला बना दिया, तभी भीड़ मैं से कोई चिल्लाया
अरे ये तो बिल्लू दादा है , अब ये ठेले वाला तो गया कम से, दादा की इजाजत के बगेर तो इस इलाके मैं पत्ता भी नही हिलता,
RAJU  के हाथ जहाँ के तहां रुक गए, सीन बदल गया था, अब हाथ दादा के चल रहे थे और RAJU  गिडगिडा रहा था, माफ़ी मांग रहा था,

Wednesday, July 24, 2013

सीट दो की है तो क्या हुआ, थोड़ा सा खिसक कर किसी को बेठा लेंगे तो क्या चला जाएगा ? इंसानियत भी कोई चीज होती है , बस मैं मेरी बगल मैं खड़े सज्जन सीटों पैर बेठे लोगों को कोसते हुए बडबडा रहे थे, अगले स्टोपेज पर एक सवारी उतारी तो उन महाशय को भी सीट मिल गयी, वह भी मेरी तरह ही दुबले पतले से थे, सीट मैं थोडी जगह दिखाई दे रही थी, इससे मुझे भी थोडी उम्मीद जगी, मैंने उनसे कहा भाईसाहब, थोड़ा खिसक जाओ तो मैं भी अटक जाऊं,इतना सुनते ही वे भड़क गए,बोले, सेट दो की है और हम दो ही बैठे हैं, कहाँ जगह दिख रही है तुम्हें ? अपनी सहूलियत देखते हैं सब, दूसरे की परेशानी नही समझाते, अब मुझे समझ मैं आ गया था कि दो की सीट पर दो ही क्यों बेठे हैं

यूँ भी होता है

गोद मैं बच्चा लिए व हाथ मैं झोला लटकाए एक ग्रामीण महिला बस मैं चडी, सीट खाली नही देख एक दम से वह निराश हो गयी, फिर भी जैसा कि बस मैं चड़ने वाला हर यात्री सोचता है कि शायद किसी सीट पर अटकने कीजगह मिल जाए, वह भी पीछे की और चली, तभी उसकी नजर एक सीट पर पड़ी , उस पर बस एक युवक बेठा था, आंखों मैं संतोष की चमक आ गयी, पास जाने पर जब उस पर कोई कपडा या कुछ सामान नही दिखायी दिया तो उसने धम्म से शरीर को छोड़ दिया सीट पर,
अरे रे कहाँ बेठ रही हो, यहाँ सवारी आएगी,
आंखों मैं उभरी चमक घुप्प से गायब हो गयी , आगे और सीट देखने की हिम्मत उसमें नही रही और वह वहीं सीटों के बीच गैलरी मैं ही बेठ गयी, इसके बाद उस खालीसीट को देख कर कईं आंखों मैं चमक आती रही और बुझती रही,तभी एक युवती बस मैं चडी , अन्य लोगों को खड़ा देख उसने समझ लिया कि वह सीट खाली नही है, कोई आएगा, नीचे गया होगा, टिकेट या फिर कूछ लेने , और वह भी खड़ी हो गयी महिला के पास,
बेठ जाइये न, यहाँ कोई नही आएगा,
इस आवाज पर युवती ने मुड़कर देखा तो युवक उससे ही मुखातिब था,उसने आश्चर्य से पूछा कोई नही आएगा,
जी नही,
युवक उसी मुस्कान के साथ बोला, इस पर युवती मुडी और नीचे बेठी उस बच्चे वाली महिला को वहां बेठा दिया,अब युवक का चेहरा देखने लायक था, वह युवती को खा जाने वाली नजरों से देख रहा था,
रामू नया -नया जयपुर आया था गाँव से , पुलिया के नीचे आदमियों की भीड़ ज्यादा दिखी तो वहीं बगल मैं लगा लिया मूंगफली का ठेला, अभी बोहनी भी नही हुयी थी किएक आदमी आया और ठेले मैं से मुठी भर कर मूंगफली उठाई और चलता बना, रामू ने उसे आवाज देकर पैसे के लिए कहा तो भद्दी सी गाली देते हुए रामू को मरने के लिए झपटा, रामू भी कोई कम नही था, अभी-अभी बीसवें साल मैं कदम रखा ही था, सरीर भी माता-पिता के लाड और झुमरी गायके दूध कि बदोलत आसपास के गाँव मैं किसी का नही था ऐसा पाया था, ऐसे मैं वो कहाँ दबने वाला था, एक ही दावमैं उस आदमी को जमीन दिखा दी, और फ़िर जो लगा दे दनादन जो उसे तबला बना दिया, तभी भीड़ मैं से कोई चिल्लाया
अरे ये तो बिल्लू दादा है , अब ये ठेले वाला तो गया कम से, दादा की इजाजत के बगेर तो इस इलाके मैं पत्ता भी नही हिलता,
रामू के हाथ जहाँ के तहां रुक गए, सीन बदल गया था, अब हाथ दादा के चल रहे थे और रामू गिडगिडा रहा था, माफ़ी मांग रहा था,