Thursday, April 30, 2009

जिंदगी प्यार मांगती है

सुबह से शाम तक थकी हुई जिंदगी !

ऑफिस की फाइलों से बंधी हुई जिंदगी !!

मशीनों के पुर्जों SANG ढली हुई जिंदगी ॥

चाय के प्यालों से पली हुई जिंदगी .....

जब घर आती है तो प्यार मांगती है !!!!!!!

चांदीके टुकडों में बिकी हुई जिंदगी

धुले हुए कपडों से ढकी हुई जिंदगी

कल के ख्यालों में डूबी हुई जिंदगी

अपने ही दुखादों से उबी हुई जिंदगी

जब घर आती है तो प्यार मांगती है !!!!

जिंदगी प्यार मांगती है

Wednesday, April 29, 2009

इंसान

इंसान है वही जो रोटी को बाँट खाए!!
हैवान है जो भूखा देखे तो काट खाए!!

बुढापे की लाठी

बुढापा एक विकार!

हीनता का शिकार

बेटा बाप के बुढापे की लाठी !

पर बदल गई परिपाटी ,,,,

बाप की पेंशन ,बेरोजगार बेटे की रोटी,

क्योंकि योग्यता के अनैतिक मापदंड में ,,बेटे की पहुँच है बहुत छोटी !!!!

Tuesday, April 28, 2009

प्राथमिक शिक्षा

जो राजनेता शायद ही कभी एयर कंडीशन कमरों से बाहर निकलते हों वे भी चुनाव के मौके पर गांवों में जाकर गरीबों के बच्चों को गोद में लेकर पुचकारते नजर आते है या फिर गरीब बूढ़ी औरत के सामने हाथ जोड़े दिखाई देते हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे गरीबों की सबसे अधिक चिंता इन्हीं की पार्टी को है। गरीब और गरीबी, दोनों को ही अपने देश में इन बड़े-बड़े राजनेताओं ने मजाक की वस्तु बना दिया है। तरह-तरह के मुद्दे उठाए जा रहे हैं। रोज नए-नए वायदे किए जा रहे है। समाज को हाईटेक बनाने की बात तो खूब हो रही है, लेकिन क्या किसी भी पार्टी ने अपने चुनावी मुद्दे में गरीब बच्चों की शिक्षा को भी मुद्दा बनाया है? हम खुद को तथाकथित पढ़े-लिखे समाज का अंग मानते हैं और यही पढ़े-लिखे लोग बिना सोचे-समझे ही एक बाहुबली और भ्रष्ट नेता को वोट देते हैं। जो कम पढ़ा-लिखा है उसे क्या पता लोकतंत्र क्या है? उसे तो जो भी बहला-फुसला ले ले उसे अपना वोट दे देगा। पढ़े-लिखे लोग बड़ी-बड़ी बातें करेंगे, समाज को बदलने की बात करेंगे, लेकिन चुनाव के दिन घर से बाहर ही नहींनिकलेंगे। ऐसे में देश भर में फैले अशिक्षा के माहौल के लिए पढ़े-लिखे लोग ही कहींज्यादा जिम्मेदार हैं।
जब भी शिक्षा की बात की जाती है तो लोग देश में रोज खुल रही नई-नई यूनिवर्सिटी, आईआईटी,मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग संस्थान का उदाहरण देते हैं। लेकिन प्राथमिक शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है? सरकारी अफसर, शिक्षा जगत से जुड़े सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तार बड़ी आसानी से देते है कि 'मिड डे मील' जैसी योजनाएं चलाकर गांव-गांव में स्कूल खोल तो दिए गए हैं, अब लोग बच्चों को नियमित स्कूल भेजते ही नहीं तो सरकार क्या करे? क्या गांव में स्कूल के नाम पर कुछ टूटे-फूटे कमरे और उसमें एक शिक्षक रख देने भर से स्कूल बन जाता है? आज भी हमारे देश में बच्चों की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा विद्यालय नहीं जा पाता। जो 40 प्रतिशत बच्चे विद्यालय जाते भी हैं वे कुछ भी सीख नहीं पाते। ऐसे में अभिभावक निराश होकर अपने बच्चों को विद्यालय भेजना बंद कर देते हैं। यह अच्छी बात है कि देश में उच्च शिक्षण संस्थान खुलें, लेकिन जब तक हमारे देश में इन गरीब बच्चों की प्राइमरी शिक्षा के लिए पर्याप्त स्कूल नहीं खुलते तब तक एक भी नई यूनिवर्सिटी को खोला जाना बेईमानी है। जितनी लागत में एक नई यूनिवर्सिटी खुलती है और सालना उसके रखरखाव में खर्च होता है उतने खर्च में तो हजारों प्राइमरी स्कूल खोले जा सकते हैं, जहां गरीबों के बच्चों की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था की जा सकती है। उच्च शिक्षा के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाना और प्राथमिक शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाओं को भी मुहैया न कराना कहां का न्याय है।
उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। आज हर पूंजीपति और उद्योगपति प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज, यूनिवर्सिटी आदि खोलकर खूब कमाई कर रहा है। पहले पैसे वाले उद्योगपति समाज सेवा के नाम पर धर्मार्थ विद्यालय व चिकित्सालय खोलते थे, लेकिन आज के व्यवसायीकरण के माहौल में यह परंपरा बिल्कुल बंद हो गई है। सरकार प्रौढ़ शिक्षा की बात करती है। इसके लिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि अगर आजादी के बाद सरकार ने ईमानदारीपूर्वक गरीब बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा का अभियान चलाया होता तो आज किसी प्रौढ़ को शिक्षित करने की जरूरत नहीं पड़ती। शिक्षा से समाज में फैली अधिकांश समस्याएं अपने आप ही हल हो जाती हैं। जिन अनेक योजनाओं पर सरकार वर्र्षो से पैसा लुटा रही है उनका समाधान साक्षरता से हो सकता था। जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, गरीबी, बाल मजदूरी जैसी समस्याएं शिक्षा के प्रसार से अपने आप कम हो जाएंगी। आखिर निर्धन वर्ग के बच्चे को इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए कि वह अभाव में भी लिख-पढ़ सके। तभी वह लोकतंत्र, चुनाव का मतलब समझ सकेगा। सिर्फ यह कह देने से काम नहींचलेगा कि हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान लागू है अथवा जनता द्वारा निर्वाचित सरकार जनता के लिए है। गरीबों की शिक्षा का उपहास उड़ाना बंद कर कुछ मजबूत कदम उठाए जाएं, तभी स्थिति में कुछ सुधार होगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की तर्ज पर बेसिक शिक्षा के लिए भी एक अनुदान आयोग बनना चाहिए। सरकार को ऐसे प्रयास भी करने चाहिए जिससे उद्योगपति तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के संस्थान अथवा अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल खोलने के साथ-साथ गांवों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए भी स्कूल खोलने के लिए आगे आएं। इसके लिए सरकार को नीतिगत स्तर पर ठोस पहल करनी होगी।

Monday, April 27, 2009

युवाओं ने किया निराश

इस बार मैंने भी अपने मताधिकार का प्रोयोग किया,वैसे मेरी उम्र २४ साल है लेकिन जब भी चुनाव होता था तो हम हमेशा बहार ही रहते थे पहले पढाई फिर रोजगार के सिलसिले में,गाँव के लोगो में अभी भी अशिक्षा है भले ही वो लोग हाई स्कूल , इंटर या बीऐ कर ले।मैंने जो देखा वो लिख रहा हूँ इस बार चुनाव में शरीर की हड्िडयों का बोझा उठाने वाले बूढ़ों में मताधिकार के प्रति जो जज्बा दिखाई पड़ा उसे भुलाया नहीं जा सकता, वहीं देश के नेतृत्व की बागडोर संभालने का दंभ भरने वाले युवाओं में वह उत्साह नहीं दिखाई पड़ा। हमारे गाँव बेलहा के रहने वाले एक सौ वर्षय रामस्वरूप जब लाठी के सहारे बूथ पर वोट डालने पहुंचे तो वहां खड़े बाकी मतदाताओं की आंखें आश्चर्य से फट गयीं। इस उम्र में भी राम स्वरूप ने जागरूकता का जो परिचय दिया, उससे युवाओं को सबक लेना चाहिए। ऐसा वहां के लोगों का कहना था। यही नहीं पीठासीन अधिकारी व मतदान कर्मी भी रामस्वरूप के इस हौसले को सलाम किये बिन रह नहीं पाये। इस बार के लोकसभा के चुनाव में बूथों पर युवाओं का जोश नहीं दिखाई दिया। मतदान केन्द्रों पर चालीस के ऊपर के ही मतदाता अधिक दिखायी पड़े। महिलाओं में इस बार जोश अधिक दिखा।
राष्ट्र के निर्माण में युवाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बदली हुई परिस्थिति में भी एक से बढ़कर एक युवाओं ने राजनीति के पटल पर अपनी पहचान बनायी है। राजनीति के इतिहास के पन्ने पलटे जायं तो ऐसी ही स्थिति देखने को मिलती है। राजनीति के समीकरण का गुणा भाग इन्हीं के कंधों पर टिका है। दिशा व दशा बदलने वाले यही युवा इस बार के लोकसभा के चुनाव में घरों से बाहर नही निकले। बूथों पर केवल उम्र दराज मतदाताओं को अपने मताधिकार का प्रयोग करते देखा गया। युवाओं के वोट न करने से वोट का प्रतिशत भी गिरा है। ऐसा नहीं है कि इनमें जागरूकता का अभाव था। बताया जाता है कि इन्होंने चुनाव में रुचि ही नही ली। जबकि पिछले चुनावों के आंकड़े यह बताते हैं कि युवाओं ने जमकर वोट किया था। कुछ युवा अगर दिखे भी तो वे एजेंट के रूप में ही काम करते नजर आये। इनमें भी कोई खासा उत्साह नही दिखाई दिया। वहीं उत्साह से लबरेज रामस्वरूप ने जिस तरह से इस उम्र में वोट डाला, उससे आज के युवाओं को सबक लेना चाहिए।

गांवों में ढिबरी के सहारे अंधेरे से जंग

मै आज ही गाँव से वापस आया हूँ,जो कुछ भी हम ने गाँव में देखा या अनुभव किया मै यहाँ पर लिख रहा हूँ......... घर-घर बिजली पहुंचाने का सरकारी दावा बेल्हा (प्रतापगढ़) में बहुत दमदार नहीं दिखता। यहां आज भी ऐसे बहुत से गांव है जहां ढिबरी की रोशनी में लोग जीने को मजबूर है।......यहां के बच्चों की आंखों पर ढिबरी का ऐसा कार्बन जमा कि उनकी आंखों में चश्मा कम ही उम्र में लग गया।,,,,, उन्हे अंधेरे से दूर करने की सारी योजनाएं विफल हो चुकी है। अब उन्हे कौन रोशनी उपलब्ध करायेगा, उन्हे किसी पर भरोसा नहीं है। जनपद में कई ऐसे गांव है जो आजादी के बाद भी रोशन नहीं हो पा रहे है। इन गांवों को रोशनी करने के लिए ग्रामीणों ने कई बार अधिकारियों एवं जन प्रतिनिधियों का दरवाजा खटखटाया लेकिन किसी ने इनकी जरूरतों को नहीं समझा। शाम होते ही पूरा गांव अंधेरे में डूब जाता है। दिखाई देता है तो बस ढिबरी की लपक से 6 दशक बीत गये लेकिन किसी ने इन ग्राम सभाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। वैसे तो सरकार ने गांवों का विद्युतीकरण करने के लिए जनपद को करोड़ों रुपये दिया लेकिन जनपद में कुछ ऐसे गांव है जिन गांवों में अभी तक विद्युत की रोशनी नहीं पहुंच पायी है। आज भी किसी त्यौहार व उत्सव में भी प्राइवेट बिजली व्यवस्था या तो केरोसिन से चलने वाले गैस का ही सहारा लेना पड़ता है। इन ग्राम वासियों से विद्युत लगने की बात करने पर कहते है कि हम लोग कई बार जनप्रतिनिधियों के पास गये है। आश्वासन के अलावा अभी तक ग्राम सभा में विद्युतीकरण के लिए प्रतिनिधि ने गांव के लिए पैसा मुहैया नहीं कराया। आज भी शाम होते ही पूरा गांव अंधेरे में डूब जाता है बच्चे दीपक की रोशनी में पढ़ने के लिए मजबूर है। इससे आये दिन उनको आंख व अन्य बीमारियों से पीड़ित रहना पड़ता है। ऐसा भी नहीं है कुछ गांव के लिए जनप्रतिनिधियों के चक्कर बराबर लगा है। यह लोग इन जनप्रतिनिधियों का वादा माने या विभाग की लापरवाही लेकिन विद्युत विभाग के अधिकारी यह जरूर मान रहे है कि अभी भी जनपद में सौ से अधिक गांव विद्युत विभाग की रोशनी से कोसो दूर है।

Friday, April 10, 2009

वोट carefully this year.

One day a florist goes to a barber for a haircut. After the cut he asked about his bill and the barber replies, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The florist was pleased and left the shop.When the barber goes to open his shop the next morning there is a 'thank you' card and a dozen roses waiting for him at his door.Later, a cop comes in for a haircut, and when he tries to pay his bill, the barber again replies, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The cop is happy and leaves the shop.The next morning when the barber goes to open up there is a 'thank you' card and a dozen donuts waiting for him at his door.Later that day, a college professor comes in for a haircut, and when he tries to pay his bill, the barber again replies, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The professor is very happy and leaves the shop.The next morning when the barber opens his shop, there is a 'thank you' card and a dozen different books, such as 'How to Improve Your Business' and 'Becoming More Successful.'Then, a Member of Parliament comes in for a haircut , and when he goes to pay his bill the barber again replies, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The Member of Parliament is very happy and leaves the shop.The next morning when the barber goes to open up, there are a dozen Members of Parliament lined up waiting for a free haircut.And that, my friends, illustrates the fundamental difference between the citizens of our country and the Members of Parliament.,,,,,,,,Vote carefully this year.

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

अधरों पर शब्दों को लिख के मन के भेद न खोलो ,,,,,मै आँखों से सुन सकता हूँ तुम आँखों से बोलो ,,सत्य बहुत तीखा होता है, सोच समझ कर बोलो !!!!

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फ़ुटपाथ पर पड़ा था>>>>>>>>>, वो भूख से मरा था>>>>>>>>>> कपड़ा उठा के देखा>>>>>>>>> तो पेट पे लिखा था… -""""सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा""… ----------------------------------------

voting

Voting should be mandatory ,,,, People should be questioned why didnt they वोट,,,,,,,We can change our political system by voting for the right person and persuading/educating people around you to vote for the right परसन,,, Let us all contribute by voting for the right person and campaign for वोटिंग..

Thursday, April 9, 2009

चुनावी समर में 23 योद्धा, दो ने छोड़ा मैदान

चुनावी समर में 23 योद्धा, दो ने छोड़ा मैदान
Apr 09, 01:38 am
प्रतापगढ़। बेल्हा के चुनावी समर के योद्धाओं की तस्वीर साफ हो गयी है। नामांकन प्रपत्रों की जांच में 25 प्रत्याशियों के पर्चे वैध पाये गये थे। इनमें से दो प्रत्याशियों ने नामांकन वापसी प्रक्रिया में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है। 23 प्रत्याशियों को जिला निर्वाचन अधिकारी ने चुनाव चिन्ह स्वीकृत किया है।
नामांकन स्थल अफीम कोठी के पास सुबह से ही प्रत्याशी व समर्थकों की चहल कदमी रही। जिला निर्वाचन अधिकारी डा. पिंकी जोवल की मौजूदगी में नामांकन वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई। दोपहर तक उम्मीदवारी वापस लेने वालों में दो प्रत्याशी रहे। इनमें बाहुबली प्रत्याशी अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता परवीन तथा जय सिंह यादव शामिल हैं।
नाम वापसी के बाद अब चुनाव मैदान में 23 प्रत्याशी हैं। इनमें से चार राष्ट्रीय दलों के साथ ही चार पंजीकृत राजनीतिक दलों के तथा 15 प्रत्याशी निर्दलीय हैं।
दोपहर बाद सभी प्रत्याशियों को सिम्बल एलाट किये जाने का काम शुरू हुआ। चुनाव चिन्ह लेने आये लोगों में अधिकतर प्रत्याशियों के प्रतिनिधि रहे। जिला निर्वाचन अधिकारी ने नामांकन प्रपत्र और प्रत्याशियों के एजेण्ट प्रपत्रों की गहन जांच के बाद ही सिम्बल एलाट किया। राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशियों में सिर्फ भाजपा प्रत्याशी ही सिम्बल लेने गये थे। सपा व बसपा प्रत्याशियों के प्रतिनिधि ही सिम्बल लेने आये। इसके इतर पंजीकृत राजनीतिक दल और निर्दल प्रत्याशी व्यक्तिगत रूप से सिम्बल लेने पहुंचे थे। दोपहर बाद तीन बजे के बाद सभी प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह आवंटित किया गया।
मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राजनीतक दलों के प्रत्याशियों में अक्षय प्रताप सिंह को साइकिल, राजकुमारी रत्ना सिंह (कांग्रेस) को पंजा, लक्ष्मी नारायण पाण्डेय (भाजपा) को कमल, शिवाकांत ओझा (बसपा) को हाथी चुनाव चिह्न मिला। पंजीकृत राजनीतिक दलों के प्रत्याशी अतीक (अपना दल) को कप-प्लेट, अरुण कुमार (सजपा) को बैटरी टार्च, अब्दुल रसीद अंसारी (मोमिन कांफ्रेंस) को सिलाई मशीन, राजेश (क्रांतिकारी जयहिंद सेना) को केला चुनाव चिह्न मिला। इसके अलावा निर्दल प्रत्याशियों शिवराम गुप्ता को रोडरोलर, छंगा लाल को रेल इंजन, विनोद को टोकरी, दिनेश पांडे को सीटी, रानीपाल को डोली, रमेश तिवारी को बल्ला, अतुल द्विवेदी को अंगूठी, ऊधवराम पाल को केतली, जितेन्द्र प्रताप सिंह को लेटर बाक्स, मुनेश्वर को गैस सिलिेण्डर, रवीन्द्र सिंह को कोट, राममूर्ति मिश्र को कांच का गिलास, रामसमुझ को पतंग, संतराम को आलमारी, बद्री प्रसाद को चारपाई चुनाव चिह्न मिला।

Saturday, April 4, 2009

हर्गिज नहीं चुनें एक भी दागदार

आपराधिक कर्म और चरित्र वाले प्रत्याशी, जिनका अच्छा-खासा इतिहास थानों में दर्ज हैं और जिनकी छवि भी दागदार है वे यदि एक बार फिर हमारे भाग्य विधाता और नीति निर्माता बन जाते हैं तो हमारे रोने-धोने और नेताओं को कोसते रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। जब यह तय है कि राजनीतिक दल दागियों को उम्मीदवार बनाने से बाज नहीं आने वाले तो फिर उन्हें सबक सिखाने में संकोच क्यों? तमाम रोष-आक्रोश और प्रतिरोध के बावजूद दागियों को चुनाव मैदान में उतारने का सिलसिला कायम होता दिख रहा है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो कुछ कुख्यात छवि वालों की उम्मीदवारी सबसे पहले पक्की हुई है, जैसे बनारस में मुख्तार अंसारी बसपा के उम्मीदवार बन रहे हैं। क्या यह बनारस की जनता का अपमान नहीं? जागे बनारस और सतर्क हो जाए सारा देश, क्योंकि बनारस की तरह देश के अन्य अनेक चुनाव क्षेत्रों में भी एक से एक दागी चुनाव मैदान में उतरने को आतुर हैं। इससे भी भद्दी बात यह है कि राजनीतिक दल भी उन्हें जनप्रतिनिधि का तमगा पहनाने पर आमादा हैं। इसके लिए वे तरह-तरह के बहाने गढ़ रहे हैं, जैसे यह कि वे भटके हुए लोगों को सुधरने का मौका दे रहे हैं। सच तो यह है कि वे हमारी आंखों में धूल झोंककर राजनीति को मैला कर रहे हैं।
दागियों को चुनकर हम लोकतंत्र को दागदार बनाने का काम करेंगे और ऐसा काम करने के बाद संसद के सही तरह चलने और पक्ष-विपक्ष के जवाबदेह बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्या यह किसी से छिपा है कि विधानमंडलों में दागी सिर्फ इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि हमारे-आपके वोट उनकी झोली में गिर रहे हैं। गलती कर रहे हैं हम और इनाम पा रहे हैं वे जिन्हें हम छंटे हुए अपराधी समझते हैं।