Tuesday, March 11, 2014

जिम्मेदारी किसकी?

किशोर वर्ग दिग्भ्रमित है! उसे संस्कारों की परवाह नहीं है! आधुनिकता की अंधी दौड़ में भारतीय संस्कारों पर आधारित मूल्यों की समझ नहीं है उसे! हम देखते हैं कि सरेराह युवतियों पर फब्तियां कसना , दोस्तों के साथ घूमते हुए सिगरेट और बियर पीना आम बात हो चली है! इस निरंकुश और अनियमित जीवन जीने की इच्छा से अधिसंख्य किशोर ऐसे सपनों वाली दुनिया में जीते हैं , जिसकी वास्तविकता प्रकट होने के बाद उनके पास सिर्फ और सिर्फ पछतावा ही रह जाता है ! जब तक वो अपनी गलतियों को समझते हैं , बहुत देर हो जाती है! वो एक दयनीय दुखों से भरा जीवन जीने को बाध्य हो जाते हैं अथवा उससे भी अधिक भयंकर अपराध की दुनिया में चले आते हैं !
युवावों की इस दशा का जिम्मेदार कौन है? हम उस युवक को ही इसका जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं क्यूंकि जब उसका जन्म हुआ था तो वो इन बुराईयों से अनभिज्ञ था, उसके चरित्र विनिर्माण में हुई चुक या फिर कई अन्य कारण हो सकते हैं उसकी इस दशा के लिए! माता- पिता , अभिभावक, समाज एवं मित्र किसी भी व्यक्ति के चरित्र के विकसित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं , अतः कहीं न कहीं यही लोग उसकी इस दशा के लिए जिम्मेदार भी हैं!
माता जिस साँचें में बच्चे को ढालती है , वो उसी में ढल जाते हैं! कई युगपुरुषों पर उनकी माँ की ही छाप पड़ी , अतः बच्चों में संस्कारों के बीजारोपण में उसकी महती भूमिका है ! हर माँ का कर्त्तव्य है की वो अपने बच्चों में सद्गुणों का विकास करे और कदम कदम पर उसकी गलतियों के लिए कठोर होकर समझाए या दंड दे , बच्चे बड़ों का आदर कर रहे हैं या नहीं, वो घर से बाहर घूमने कहाँ जाते हैं , किसके साथ जाते हैं , क्या खाते हैं , आदि आदि इन छोटी छोटी बातों पर निगरानी करना चाहिए !और लगभग हर माँ यही करने का प्रयास भी करती है , पर उसे ये सब करने का समय ही नहीं है , इसका कारण है एकल परिवारों की बढ़ोत्तरी ! क्यूंकि संयुक्त परिवार में यदि माँ या पिता बच्चों का ध्यान नहीं दे पाते तो उनकी दादी, दादा, चाचा, चाची और अन्य सदस्य बच्चे का ध्यान रखते हैं ! आज मेरे सामने कई ऐसे बच्चे लफंगों की तरह घुमाते दिखाई देते हैं जिनके माता पिता दोनों ही दिनभर नौकरी करने के लिए घर पर नहीं होते और बच्चा घर पर कुछ भी करने को स्वतंत्र होता है , क्यूंकि उसकी निगरानी के लिए न तो उसके दादा -दादी हैं और न ही कोई और! ऐसे बच्चे जिज्ञासा बस नयी नयी चीजें जानने की उत्सुकता में कब गलत रस्ते पर कदम बाधा देते हैं उन्हें खुद ही नहीं पता चलता है!
हमारे अध्यापक न केवल हमें बौद्धिक एवं पुस्तकीय ज्ञान देते हैं अपितु वो हममें ईमानदारी, सत्य , न्याय , विनम्रता एवं अन्य मानवीय गुणों की स्थापना भी करते हैं , हमें प्राणी से मानव हमारे शिक्षक ही बनाते हैं ! हमें संस्कारों का महत्व एवं समाज तथा संस्कृति की शिक्षा भी देना इन्ही का काम है , पर आज ऐसे शिक्षकों का आभाव सा हो गया है , किताबी ज्ञान तो इनसे मिल जाता है पर व्यावहारिक ज्ञान देने में ये असमर्थ हैं , शिक्षा के बढ़ाते बाजारीकरण एवं प्रतिस्पर्धात्मक बने रहने के लिए व्यर्थ दिखावे में आकर इन मुलभुत बातों से आज के शिक्षक चूक गए हैं जिसकी परिणिति बच्चों में बढ़ते आपराधिक प्रवृति है! आज हर दिन ९से १२ या फिर कालेज लेविल के बच्चों के हत्या , छेड़छाड़ तथा चोरी जैसी घटनावों में संलग्न होने की खबरें अखबारों में छाई रहती हैं!
हमारे मित्र हमारे व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव रखते हैं, हमारी संगति जैसे होगी वैसे ही हमारा व्यक्तित्व होता है! अतः बच्चे कैसे लोगों को अपना मित्र बनाते हैं! इसकी जानकारी रखनी होगी , और अभिभावक को चाहिए की वो बच्चे का सबसे अच्छा मित्र भी बनें जिससे बछा अपनी हर बात आपसे बता सके और गलत लोगों के साथ जाने से बच जाए!
किसी भी समाज एवं राष्ट्र के नव निर्माण में वहां की युवा पीढ़ी आधार होती है , अतः उन्हें उर्जावान बनाये रखना होगा ! उनमे व्याप्त दुर्गुणों को हटकर उसके स्थान पर सद्गुणों का विकास करना समाज के बौद्धिक लोगों की भी जिम्मेदारी है , हमें ऐसे बच्चे जो निरुद्देश्य घूमते मिलें उन्हें एक उद्देश्य और दिशा दें , बच्चों में मानवीय गुणों के विकास हेतु सिविर लगाये जाएँ उन्हें पाश्चात्य संस्कृति के जाल में जाने से बचाएं ! उन्हें जीवन को एक लक्ष्य पे केन्द्रित करने में मदद दें!

Monday, March 10, 2014

विवाह मंडप से परीक्षा केंद्र पहुंचीं निर्मला

हर लड़की की यह ख्वाहिश होती है कि वह डोली चढ़ कर अपने घर से पिया के घर जाए, लेकिन एकमा प्रखंड के परसा गांव निवासी सिताब साह की पुत्री निर्मला की रविवार की रात मंडप में बीती तो सोमवार की सुबह अपने पिया के घर विदा होकर जाने की बजाए वह गंगा सिंह कालेज में मैट्रिक की परीक्षा देने पहुंच गयी। निर्मला कहतीं हैं कि पढ़ाई ज्यादा जरूरी है।
परसा उच्च विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा में शामिल निर्मला की शादी नौ मार्च को हुई। दस मार्च को उसकी परीक्षा प्रथम पाली में थी। वह विदाई के बाद सीधे परीक्षा केंद्र पर पहुंच गयी। निर्मला ने बताया कि उसकी शादी रिविलगंज के फिरोजपुर निवासी वीरेंद्र कुमार से हुई है। वह भी इसी साल इंटर की परीक्षा दिए हैं। पढ़ाई का महत्व मेरे परिवार के साथ ससुराल वाले भी समझते हैं। सोमवार को विदाई के बाद घरवालों ने जनवासा में भेज कर रस्म पूरी की और परीक्षा केंद्र पर भेज दिया। वह परीक्षा के बाद अपने ससुराल जाएगी। निर्मला परीक्षा केंद्र पर अपनी शादी की बात अपने साथी परीक्षार्थियों से छुपाना चाह रही थी, लेकिन निर्मला हाल में उतर लिखते-लिखते सो जा रही थी। हाल में वीक्षण कार्य कर रहे शिक्षक डा. शशिभूषण कुमार शाही ने जब उससे यह जानने का प्रयास किया कि कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं है। इसके बाद उसने बताया कि उसकी शादी रविवार की रात हुई है। इसलिए बार-बार आंख झपक जा रही है। निर्मला ही नहीं इसी केंद्र पर परीक्षा दे रही प्रतिमा कुमारी की शादी आठ मार्च को हुई थी।
खो भाई..यह नगर, मुहल्ले या विधानसभा का चुनाव नहीं है कि इसमें सिर्फ नाला-नाली और खड़ंजे के मुद्दे पर ही वोट दे दिया जाए। इस चुनाव से देश चलाने वाले हाथ तैयार होंगे, इस नाते ज्यादा समझदारी दिखाने की जरूरत है। उसी पार्टी को वोट दिया जाए जो कि हर बड़े मुद्दे पर संजीदा रहे। ये मुद्दे जनता से सीधे जुडे़ हों और विदेश नीति से भी। हां.मेरी भी यही सोच है। बड़े चुनाव में बड़ी सोच हमें रखनी चाहिए।

Friday, March 7, 2014

महिला दिवस

मेरे लिये महिला दिवस मतलब कुछ लिखने जाती हूँ मासूम बच्चियोँ का चेहरा आँख के आगे आ जाता है । कुछ अपवाद छोड़ के बहुत जगह बेटा बेटी से खिलौने छीन सकता है , दो बेटीयो के बाद हुआ बेटा बेटियो से छोटा बेटा माँ बेटी को कहेगी बड़े प्यार से बेटा दे दे भइया को छोटा है रोयेगा और बेटी बिना किसी शिकायत के दे देगी , बेटी कितनी बड़ी हो गयी बचपन मे ही ।फिर स्कूल जाती बच्ची क्या सुरक्षित है बड़ी होती बेटी घर बर अच्छा मिला ब्याह दो । आज की बेटी कल बहू बन गयी बहू बन के भी कयी समझौते कभी खुद की खातिर कभी अपनो की खातिर अगर कही कुछ गलत हो गया तो जीते जी मरे वो ,वो कमीने डर तो उन राक्षसो( हैवानो )को होना चाहिये जो जीते जी छीन लेते है अधिकार जीने का मुँह छिपाना चाहिये कायरो को ना कि निअपराध नारी को कैसा महिला दिवस जिस दिन ये बलात्कार शब्द हमे लिखने मे शर्म आती है ये शब्द खत्म होगा उस दिन सच्चे अर्थो मे महिला दिवस होगा

आओ चले मतदान करे.………

गुमनामी से बाहर आकर
चलो अपना पहचान करे
आओ चले मतदान करे
आओ चले मतदान करे.………

नव पथ को परस्त कर
हर बाँधा को निरस्त कर
जन शक्ति का संज्ञान धरे
आओ चले मतदान करे.………

ये लोकतंत्र का हैं महापर्व
जिस अधिकार पर हैं हमको गर्व
उनका सम्मान करे
आओ चले मतदान करे.………

करके याद उन वीर जवानो को
साकार करे उनके अरमानो को
उनकी कुर्बानी का गुणगान करे
आओ चले मतदान करे.………

बड़े अर्शे के बाद आया हैं यह मौका
उनको सबक सिखाये जिसने हमको रोका
शसक्त राष्ट का निर्माण करे
आओ चले मतदान करे.…

लड़कियों को लड़नी है लंबी लड़ाई

औरतों को अगर सशक्त बनाना है, तो शिक्षा आज सबसे बड़ी जरूरत है। लड़कियों को तो शिक्षा की जरूरत है ही, लड़कों को भी सिखाना होगा कि वे लड़कियों की इज्जत करें। साथ ही लड़कियों को भी ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वे अपने महत्व को समझें, खुद अपना सम्मान करना सीखें। उनके लिए अपना आत्म-सम्मान सबसे बड़ी चीज होनी चाहिए। औरतों से जुड़ी हर समस्या का समाधान लड़कियों की शिक्षा पर ही निर्भर है। लड़कियां शिक्षित होंगी, तो वे अपने आप में सशक्त भी होंगी। तब उनका शोषण आसान नहीं होगा। वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकेंगी। अगर वे अपने पैरों पर खड़ी होंगी, तो उनके अंदर एक आत्मविश्वास भी होगा। तब उन्हें आसानी से घरेलू हिंसा का शिकार भी नहीं बनाया जा सकेगा। अगर लड़की अनपढ़ होगी, तो हो सकता है कि एक हद के बाद वह लाचार हो जाए। शिक्षा से ही हर नारी सशक्त बन सकती है।

इसके लिए हमें शिक्षा और उसके प्रति सोच में भी बदलाव लाना होगा। सरकार और तमाम लोग भी यह दावा करते हैं कि अब गांवों में भी स्कूल खुल गए हैं, वहां गरीब परिवार की लड़कियां भी स्कूल जाने लगी हैं। मगर जमीनी सच्चाई यह है कि गरीब परिवार अपने बच्चों को स्कूल अक्सर ‘मिड-डे मील’ के लिए भेजते हैं। मेरी फिल्म गुलाब गैंग में एक सीन है, जहां गरीब परिवार गरमी की छुट्टियों में भी स्कूल बंद करने के खिलाफ आवाज उठाते हैं, क्योंकि स्कूल खुला रहेगा, तो बच्चों को कम से कम एक समय तो खाना मिल सकेगा। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे लोगों को लगे की मिड-डे मील से आगे भी इसका जीवन में कोई व्यावहारिक महत्व है।

लोग कहते हैं कि गांव में रहने वाले दकियानूसी होते हैं। वहां लड़कियों की शिक्षा का महत्व नहीं समझा जाता। मैं इस तरह की बातों से सहमत नही हूं। सिर्फ गांवों में ही लड़के और लड़की में भेदभाव नहीं किया जाता। मेरी परवरिश मुंबई जैसे महानगर में हुई है। लेकिन मेरा संबंध एक दकियानूसी परिवार से है। मेरी दादी को मेरा डांस सीखना भी पसंद नहीं था। पर आज मैं यहां तक इसलिए पहुंच पाई, क्योंकि मेरी मां शिक्षित थीं और उन्होंने हम बहनों को डांस सिखवाना शुरू किया था। मैंने तीन साल की उम्र में डांस सीखना शुरू किया था। तब मुझे इस बात की समझ भी नहीं थी कि इससे आगे जाकर क्या होगा? पर उसी की वजह से मैं आज यहां तक पहुंची हूं।

हमारे यहां का जो सामाजिक माहौल है, उसमें हर तरह से लड़की को ही दबाया जाता है। यही सिखाया जाता है कि उसे शादी करनी है। दूसरे घर जाना है। पति, सास-ससुर की सेवा करनी है। इसलिए लड़कियां अपने बारे में सोचने की बजाय अपने भावी पति के बारे में सपने बुनती रहती हैं। वे ससुराल में जाकर क्या करेंगी? इससे उनके अंदर खुद को लेकर कोई आत्म-सम्मान नहीं बनता। जबकि प्राथमिकता आत्म-सम्मान को मिलनी चाहिए, बाकी चीजें इसके बाद की हैं। हर लड़की को यह समझना चाहिए कि देश के विकास या देश के उत्थान में जितना योगदान लड़कों का है, उतना ही लड़कियों का भी है। लड़कियों को यह भी सोचना चाहिए कि पति, शादी-ब्याह और घर से परे भी एक दुनिया है। अगर आत्म-सम्मान के साथ अपने पैरों पर खड़ी होंगी, तभी वे देश के विकास में बराबर का योगदान दे पाएंगी। हम आए दिन औरतों के शोषण और उत्पीड़न की खबरें सुनते हैं। गुस्सा भी आता है।

कई बार हमें कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। कई बार हमें कठोर बनना पड़ता है। यह बहुत दुखद है कि भारत में औरतों के साथ अमानवीय व्यवहार अक्सर होता है। यहां तक कि नाबालिग लड़कियों के साथ भी रेप की घटनाएं बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। और यह नई बात नहीं है। जब मैं पढ़ती थी, ट्रेन या बस में यात्रा करती थी, तब लोग हमें छूने का प्रयास करते थे या फब्तियां कसते थे। तब अपमान ही नहीं, हीनता का एहसास होता था। यह सब तब तक नहीं रुक सकता, जब तक कि हर इंसान की सोच नहीं बदलती। यह पूरी तरह से पुरुष माइंडसेट को बदलने का मामला है।

जब बचपन से बेटी घर के अंदर अपनी मां को प्रताड़ित और शोषित होते देखती है, तो उसके दिमाग में यह बात आ जाती है कि हमें तो शोषित और प्रताड़ित होना ही है। समाज में मां अपने आपको इतना असुरक्षित पाती है कि वह सब कुछ सहती है और अपनी बेटियों को भी सहने की शिक्षा देती रहती है। वह बेटी को बचपन से ही यह समझाती है कि तुम्हारे भाई के लिए ये चीजें हैं और तुम्हारे लिए वह। यह भेदभाव तो परिवार के अंदर ही शुरू हो जाता है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर लड़की हीन ग्रंथी का शिकार हो जाती है। इसलिए पहली शुरुआत परिवार से ही करनी होगी। जब लड़की और लड़के में परिवार के अंदर कोई भेदभाव नहीं होगा, तो बहुत-सी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी।
हर समस्या से निपटने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम उनके साथ संघर्ष करें। समस्या को देखकर आखें बंद कर लेना या पलायन करना, सबसे ज्यादा खतरनाक होता है। समस्याओं के अनुरूप उनसे निपटने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं।

हर इंसान की अपनी सोच और उसके एटीट्यूड के आधार पर भी समस्याओं से अलग तरीके से निपटा जा सकता है। समाज में फैली बुराइयों या नारी उत्पीड़न के बाद लोग सारा दोष सिनेमा पर मढ़ते हैं। कई बार मुझे खुद कुछ फिल्में देखकर तकलीफ होती है कि हम सिनेमा में क्या दिखा रहे हैं? इसके बावजूद मेरा मानना है कि बुराई की जड़ सिनेमा नहीं है। सिनेमा तो अभी सौ साल का हुआ है, लेकिन अपराध तो उससे पहले से होते आ रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा कभी किसी को कुछ सिखाता नहीं है। पिछले दिनों जब मैंने फिल्म गुलाब गैंग  में काम किया, तो मुझे काफी संतोष मिला। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि हमने सही वक्त पर लड़कियों को सही संदेश देने वाली फिल्म बनाई है। इससे मेरे अंदर का आत्म विश्वास और बढ़ा है। लेकिन मुझे पता है कि इतना ही काफी नहीं है। समाज की बुराइयों को खत्म करने के लिए अभी हमें काफी संघर्ष करना है। हमें पत्थर नहीं बनना है, इंसान की तरह इंसाफ के लिए लड़ना है।

Tuesday, March 4, 2014

मौन” सर्वोत्तम भाषण है!

मौन रहने से जहां व्यक्ति की ‘ऊर्जा’ संरक्षित रहती है, वही उसे मानसिक शान्ति का भी अनुभव होता है। मौन रहकर ही हम किसी ‘विषय’ का गहरार्इ से ‘चिंतन’ कर सकते हैं और विषय की ‘तह’ तक पहुंच सकते हैं। जितने भी उच्चस्तर के संत-महात्मा-वैज्ञानिक तथा लेखक-कवि-साहित्यकार हुए हैं, उनके उच्च स्तर के ‘कृत्य’ व ‘कृति’ के पीछे मौन की ही साधना रही है। इसलिए ‘मौन रहो और अपनी सुरक्षा करो, मौन तुम्हारे साथ कभी विश्वासघात नहीं करेगा।1

ये कैसी जिद, 'उन्हें' बचाने के लिए और कितनों की बलि

हैलट और उससे संबंद्ध अस्पतालों में बीते तीन दिनों में डॉक्टरों की हड़ताल के कारण इलाज न मिलने से 21 मरीज दम तोड़ चुके हैं। चिकित्सा सेवाएं पंगु पड़ी हैं। जिंदगी खुद से डरने लगी है और बीमारी मौत बनकर पीछे दौड़ रही है, क्योंकि 'धरती का भगवान' रूठा है। वजह, उसने शरीर पर ढेरों लाठियां खाई हैं जिसके जख्म अभी ताजे हैं। एक तरफ न्याय के लिए चिकित्सा बिरादरी जिद पर अड़ी है तो दूसरी तरफ शासन और प्रशासन काले को सफेद बताने पर तुला है। ऐसे में सवाल है कि आखिर ये जिद क्यों? सिर्फ उन्हें बचाने के लिए जिन्होंने ये हालात पैदा किए। तीन दिन के नाटकीय घटनाक्रम पर नजर डालें तो इस 'जिद' की असली वजह खुद-ब-खुद सामने आ जाएगी।
शुक्रवार को झगडे़ की शुरूआत सपा विधायक इरफान सोलंकी के साथ शुरू हुई और इसके बाद छात्रों को सबक सिखाने के लिए न सिर्फ लाठियां चटकाई गई बल्कि रबर बुलेट का भी इस्तेमाल हुआ। प्राचार्य और प्रोफेसर भी गुस्से का शिकार हुए। इसके सबूत हैं। सवाल यह है कि जब घटना हैलट अस्पताल के सामने हुई तो पुलिस मेडिकल कालेज कैंपस तक कैसे पहुंच गई। क्या छात्रों को खदेड़कर कैंपस गेट का ताला बंद नहीं किया जा सकता था, लेकिन पुलिस ने एक कदम आगे जाकर सपा विधायक की ओर से एक और खुद दो मुकदमे 24 मेडिकल कालेज छात्रों के खिलाफ दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया। घटना के विरोध में डॉक्टर हड़ताल पर चले गए, और मामला शासन तक पहुंचा, इसलिए पुलिस और प्रशासन के उच्चाधिकारी भी हरकत में आ गए लेकिन उनका मकसद सिर्फ हड़ताल खत्म कराने तक ही रहा। पहले डीएम ने कोशिश की और फिर कमिश्नर ने। दबी जुबान उच्चाधिकारी यह मान रहे हैं कि कार्रवाई कुछ ज्यादा हो गई, डीएम ने भी कहा कि कैंपस में घुसने की अनुमति नहीं ली गई, पर उनके खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई है, जिन्होंने अपनी सीमाओं को लांघा। फुटेज में ग्वालटोली के एसओ को पत्रकारों पर लाठियां बरसाते हुए देखा जा सकता है। एसओ पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? मारपीट तो सपा विधायक और उनके गनरों ने भी की, फिर उन पर मुकदमा कायम क्यों नहीं हुआ।
डॉक्टर एसएसपी और विधायक के निलंबन और हत्या के प्रयास का मुकदमा कायम कराने की जिद पर अडे़ हैं लेकिन प्रशासन पूरी तरह से डाक्टरों को ही दोषी ठहराने पर तुला है। सोमवार को आए विशेष सचिव चिकित्सा शिक्षा अरिंदम भट्टाचार्या, महानिदेशक चिकित्सा शिक्षा केके गुप्ता का रवैया नकारात्मक ही नजर आया। डीएम ने पहले एडीएम सिटी फिर एडीएम वित्त इसके बाद सीडीओ को जांच सौंपी और आज कन्नौज में सीएम अखिलेश यादव ने मामले की उच्च स्तरीय जांच कराने की घोषणा भी की है। लेकिन सवाल यही खड़ा होता है कि आखिर जांच-दर-जांच का यह सिलसिला कब तक चलेगा। 'अपनों' को बचाने के लिए अभी और कितनी बलि चढ़ाई जाएगी, जबकि हालात बेकाबू होते जा रहे हैं।
सिस्टर मेरे बेटे की सांसें उखड़ रहीं हैं, जल्दी कुछ कीजिये, डॉक्टर को बुलाइए, वर्ना बेटा चला जाएगा।' सिस्टर ने मरीज को कुछ दवाएं और इंजेक्शन देने के बाद रोती हुई महिला को समझाया कि डॉक्टर हड़ताल पर हैं, नहीं आएंगे। इसके कुछ देर बाद युवक की सांसें थम गई। इकलौते बेटे को खोकर मां छाती पीट-पीटकर बिलख पड़ी तो पिता अपनी किस्मत को कोसने लगा। सोमवार को हैलट के मेडिसिन वार्ड में यह हृदयविदारक दृश्य देखकर मौजूद तीमारदारों की रूह कांप गई।