Wednesday, April 23, 2014

नाम सरमन लाल अहिरवार, उम्र 48 वर्ष, रोजगार रिक्शा चलाना और शिक्षा के नाम पर स्कूल का दरवाजा भी नहीं देखा है। सरमन अपना नाम भी हिंदी में ठीक से नहीं लिख पाते, परंतु फ्रेंच, स्पैनिश और इटेलियन भाषा बोल लेते हैं।
विश्व प्रसिद्घ पर्यटन स्थल और पाषाण कला की बेजोड़ नगरी खजुराहो में सरमन लाल सिर्फ अकेले ऐसे नहीं हैं। उनके जैसे लोगों की तादाद सैकड़ों में हैं।
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के कस्बे खजुराहो को दुनिया में कला की नगरी के तौर पर जाना जाता है। वहां मूर्तियों में काम और कला का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इस कला को देखने दुनिया भर से पर्यटक आते हैं। 
यहां बड़े-बड़े होटल हैं, रेस्तरां हैं और सैलानियों की जरूरत की सामग्री उपलब्ध कराने वाले बाजार भी हैं। इन स्थानों का संचालन ऐसे वर्ग के हाथ में है जो पढ़ा लिखा माना जाता है और वह कई भाषाओं की जानकारी रखने के सहारे अपने कारोबार को बढ़ाता है।
इन सबसे हटकर बहुत बड़ा एक वर्ग और भी है जिसकी जिंदगी रोज कमाने-खाने से चलती है। इनमें रिक्शा चलाने वाले, सड़क किनारे फुटपाथ पर दुकान लगाकर सामान बेचने वाले और चाय पान की दुकान पर काम करने वाले शामिल हैं। इस वर्ग में बहुत ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है, जिन्हें रोटी की मजबूरी ने स्कूल का दरवाजा तक नहीं देखने दिया।
रोटी की मजबूरी ने यहां के उस वर्ग को भी अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पैनिश और इटैलियन भाषा सिखा दी है जो हिन्दी भी लिखना नहीं जानते। एक दुकान पर काम करने वाला राम कृपाल बताता है कि अब से कोई आठ साल पहले वह मंदिरों के आस पास घूमा करता था। रोटी कमाना उसकी भी मजबूरी थी। वह सिर्फ तीसरी कक्षा तक पढ़ा है। उसने धीरे-धीरे विदेशी सैलानियों से बात करने की कोशिश की और वह आज फ्रेंच, स्पैनिश और इटैलियन बोलने लगा है। वह बाहर से आने वाले सैलानियों के समूह को खजुराहों घुमाने में मदद करता है तथा माह में 15,000 रुपये तक कमा लेता है।
पर्यटन विभाग से मान्यता प्राप्त गाइड नरेन्द्र शर्मा बताते हैं कि रोटी की मजबूरी ने यहां के लोगों को भाषाएं सीखने को मजबूर किया है। यही कारण है कि रिक्शा चलाता, फुटपाथ पर सामान बेचता और होटल में पानी पिलाता मजदूर विदेशी भाषाएं बोलता नजर आ जाएगा।

वहीं दूसरी ओर यहां तैनात पुलिस जवानों को भी विदेशी भाषाएं सिखाने का अभियान चल रहा है। छतरपुर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अनिल मिश्रा ने बताया है कि पिछले तीन माह से चल रही कोशिशों ने 10 ऐसे जवान तैयार कर दिए हैं जो विदेशी भाषा बोलने लगे हैं। इन जवानों को जानकार लोग विदेशी भाषाएं सिखा रहे हैं।
बातों का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता और न ही इसके विषय खत्म होते हैं, लेकिन बातें अगर संतुलित तथा उपयोगी हों तब ही उनकी सार्थकता होती है। टॉक द टाक डे पर  विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों ने इस बारे में अपने विचार रखे।
एक सरकार स्कूल में कार्यरत शिक्षिका प्रमिला मेहता ने कहा कि कहा जाता है कि महिलाएं बहुत बोलती हैं। ऐसा नहीं है। बोलते पुरूष भी हैं। बोलना जरूरी है, लेकिन अगर सोचसमझ कर बोला जाए तो बात नहीं बिगड़ती अन्यथा आपके अच्छे खासे रिश्ते में दरार आ सकती है।
मेहता ने कहा कि मैं शिक्षिका हूं। बिना बोले तो मेरा काम चल ही नहीं सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं गैरजरूरी बोलूं। मुझे बच्चों को बोल कर समझाना होता है। बोलते समय मुझे यह ध्यान रहता है कि बच्चे छोटे हैं और उस उम्र में वह जो समझ सकते हैं मैं उसी तरह से बोलूं।
हंसराज कॉलेज की छात्रा प्रगति मिश्र कहती हैं कि अगर बातचीत न की जाए तो बोरियत हावी होते देर नहीं लगेगी। उन्होंने कहा बातचीत के जरिये हम अपनी समस्याओं का हल निकाल सकते हैं। बिना बोले किसी को पता कैसे चलेगा कि हमें कौन सी समस्या है। अपनी पीड़ा भी अगर दूसरों को बता दी जाए तो दुख हल्का हो जाता है।
उन्होंने कहा कि अकेले ही अगर उधेड़बुन में उलझे रह जाएंगे तो अवसाद के शिकार हो जाएंगे। तब सिर्फ दवा और डॉक्टर रहेंगे तथा साथ रहेगी उपेक्षा की भावना।
 
स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. रजनी दत्ता कहती हैं कि बातें करने में बुराई नहीं है। लेकिन बोलने के साथ-साथ सुनना भी चाहिए। जब तक आप अच्छे श्रोता नहीं होंगे तो आप सामने वाले की बात अच्छी तरह समझ नहीं सकेंगे।
उन्होंने कहा मेरा पेशा ऐसा है कि मुझे मरीज की बात ध्यान से सुननी पड़ती है। अगर मुझे लगता है कि कोई बात मुझे ठीक से समझ नहीं आई तो मैं मरीज से दोबारा पूछती हूं। ऐसा उसके इलाज के लिए जरूरी भी है। उसकी समस्या को पूरी तरह समझ कर ही इलाज किया जा सकता है। समझने के लिए सुनना जरूरी है।
प्रगति कहती हैं कि संवादहीनता की स्थिति बिल्कुल नहीं होनी चाहिए अन्यथा कई प्रकार की गलतफहमियां उत्पन्न होती हैं। उन्होंने कहा भारत-पाकिस्तान के बीच कहीं न कहीं संवाद के आदान-प्रदान की जरूरत है, इसीलिए तो समग्र वार्ता प्रक्रिया चलाई जा रही है।
प्रमिला मानती हैं कि बच्चों के करीब जाने के लिए मीठा और उपयोगी बोलना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है बिल्कुल छोटे यानी एक साल के बच्चे से संवाद स्थापित करना। शिशु के सामने हम जो कुछ बोलते हैं वह उसे आत्मसात करने की कोशिश करता है, यह बात वैज्ञानिक भी साबित कर चुके हैं। शिशु को हम बोल-बोल कर ही तो सिखाते हैं। वह कहती हैं मीठा बोलना, संयमित बोलना, सोचसमझ कर बोलना और सुनना जीवन के ऐसे उपयोगी पक्ष हैं जिन पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। प्रगति कहती हैं कि बातचीत ही रिश्ते बनाती है और इसी का असंतुलन रिश्ते तोड़ देता है तो फिर मीठा क्यों न बोला जाए।
प्राणों में चेतना, बाजुओं में फड़कन और रक्त में उबाल पैदा कर देने वाली 12वीं शताब्दी की बुन्देलों की शौर्यगाथा (आल्हा) के स्वर अब क्षीण हो चले हैं।
मानसून की बेरुखी से साल दर साल सूखे से तबाह हो रहे विन्ध्य अंचल में बढ़ रहे पानी के संकट के चलते यहां के लोगों के कंठो में इसकी लय थमने लगी है। वीर रस का यह महाकाव्य सावन के मौके में पढा और गाया जाता है लेकिन गांव की चौपाले अब इससे सूनी हैं। ढोलक की थाप पर गूंजने वाली आल्हा के स्थान पर अब चौपालों पर सन्नाटा पसरा रहता है।
एक दशक पहले तक उत्तर भारत के गांवों की चौपालें सावन के आगमन के साथ ही आल्हा के ओजस्वी गायन से गूंजने लगती थीं और रुनझुन फुहारों के बीच आल्हा की अनुगूंज वातावरण में रस घोल देती थी। लोग अपना सारा कामकाज छोड़कर झुंड के झुंड इस ओर खिंचे चले आते थे और घंटों बैठकर इसका आनन्द लेते थे। 
हाल के वर्षो में प्रकृति के कोप के चलते बुन्देली लोकजीवन की शौर्य भरी यह झांकी अब दम तोड़ रही हैं। साथ ही इस परंपरा के संवाहक भी धीरे धीरे इससे मुंह मोड़ बैठे हैं।
देश के हिंदी भाषी क्षेत्रों में रामचरित मानस के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय आल्हाखंड में महोबा के चंदेल शासनकाल के दो वीर योद्धाओं आल्हा और ऊदल के शौर्य तथा पराक्रम का वर्णन है।यह पराक्रम उन्होंने अपनी मातृभूमि की आन-बान-शान के लिए विभिन्न युद्धों में दिखाया था।
इतिहासकार आल्हा में 52 युद्ध होने की बात स्वीकारते हैं लेकिन प्रामाणिक रुप से 13 युद्ध प्रसंग ही जाने जाते हैं।आल्हा में सर्वाधिक लोकप्रिय युद्ध प्रसंगों में से (भुजरियों की लडाई) में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान की सेना और चंदेल सेना के मध्य हुए ऐतिहासिक युद्ध का वर्णन है जिसमें आल्हा और ऊदल की वीरता के आगे चौहान सेना टिक नही सकी थी और उसे बुरी तरह से मुंह की खानी पडी थी।
यह युद्ध सावन माह की पूर्णमासी को लडा़ गया था जिसकी वजह से महोबा में रक्षाबंधन का त्यौहार नही मनाया जा सका था और भुजरियों के विर्सजन की परंपरा भी टूट गई थी।
इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना की भारी पराजय के बाद अगले दिन महोबा के आसपास के क्षेत्र में न सिर्फ विजयोत्सव मनाया गया बल्कि बहनों ने भाइयों के राखी बांधी और भुजरियों का विर्सजन किया गया। साहित्यकार संतोष कुमार पटैरिया के अनुसार वीररस का अनूठा
और एक मात्र महाकाव्य होने के कारण आल्हा को भारत ही नही बल्कि विदेश में भी काफी लोकप्रियता हासिल हुई।
फिजी (जावा)सुमात्रा और इंडोनेशिया आदि में बसे भारतीय मूल के लोगों की मांग पर कुछ बरस पहले तक कानपुर के श्रीकृष्ण पुस्तकालय से इसे पार्सल के जरिए वहां भेजा जाता रहा।
द्वितीय विश्व युद्ध में आल्हा ने भारतीय सैनिकों में जोश और स्फूर्ति का संचार किया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों को आल्हा से प्रेरणा मिलती थी तथा पं.परमानन्द, चंद्रशेखर आजाद, दीवान शतुध्न सिंह जैसे महान देशभक्त फुर्सत के क्षणों में सामूहिक आल्हा गायन करके मन बहलाया करते थे।
आल्हाखंड के रचयिता जगनिक के नाम पर स्थापित जगनिक शोध संस्थान के सचिव डा. वीरेन्द्र निर्झर के अनुसार आल्हा, अवधी,कन्नौजी , भोजपुरी और बुन्देलखंडी आदि बोलियों में गाई जाती है। बुन्देली शैली में ओज का प्रभाव अधिक होने के कारण यह श्रोताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है।
आल्हा की रचना चंदवरदाई के पृथ्वीराज रासो तथा कवि जगनिक के परमाल रासो की सामग्री से हुई बताई जाती है लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नही है। पिछले आठ सौ से अ िधक वर्षो से आल्हा को जीवंत रखने वाले आल्हा गायकों (अल्हैत) कहा जाता है। गुरु शिष्य परंपरा में आल्हा ने अभी तक एक स्वर से दूसरे स्वर तक यात्रा की है इसलिए इसमें कुछ विसंगतियां भी आई हैं।
सुप्रसिद्ध आल्हा गायक बच्चा सिंह का कहना है कि आल्हा की लोकप्रियता में कमी आने का प्रमुख कारण मौजूदा दौर की चकाचौंध है। पहले रियासतों द्वारा आल्हा गायकों को प्रश्रय दिया जाता था लेकिन अब न आल्हा की कद्र रही और न अल्हैतों की।
महोबा के कजली महोत्सव तक में अब आल्हा गायन की परंपरा लुप्त हो चली है। इसके गायन की प्राचीन परंपरा को ठप कर दिया गया है।
पौराणिक कथा के चरित्र सावित्री व सत्यवान के बारे में तो आप जानते ही होंगे। कहा जाता है कि सावित्री अपने मृत पति को भी यमराज से छुड़ाकर ले आई थी। यकीनन हर पुरुष अपनी पत्नी के रूप में सावित्री जैसी ही लड़की की चाहता रखता है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसकी पत्नी भी सावित्री जैसी गुणवान हो। सावित्री जैसी पत्नी का जिक्र आते ही एक सुसंस्कारित, सुंदर और पतिव्रता स्त्री की तस्वीर सामने उभरती है।
आज के युग में सुंदर महिला का अर्थ यदि स्मार्ट महिला होती है तो वैज्ञानिकों ने सावित्री जैसी पत्नी होने पर लंबी उम्र तक जीने की ताकीद कर दी है। अब एक अध्ययन ने इसमें एक और बड़ा कारण जोड़ दिया है। एक शोध से पता चला है कि सुंदर और चुस्त महिलाओं का साथ मौत से आपके फासले बढ़ा सकता है।
अध्ययन में मालूम चला कि कम पढे़ लिखे लोग ज्यादा जीते हैं। हालांकि यह भी पाया गया कि पुरूषों के लंबे जीवन में उनकी पढाई लिखाई के बजाए उनके पत्नी की पढा़ई ज्यादा मायने रखती है।
मारे शास्त्रों में कहा गया है कि पांच वर्ष की उम्र तक बच्चों को प्यार-दुलार दें। उसके बाद उचित शिक्षा देने के लिए दस वर्ष की उम्र तक उसकी पिटाई करें और जब वह सोलह वर्ष का हो जाए उसके साथ दोस्त जैसा व्यवहार करें।
हाल में किया गया अध्ययन काफी हद तक इस बात की पुष्टि करता है, जिसमें कहा गया है कि जिन बच्चों को तीन साल की उम्र में बार-बार पीटा जाता है, पांच वर्ष की उम्र तक पहुंचने पर उनके आक्रामक बनने की अधिक संभावना रहती है।
इस अध्ययन से पहले के उन अध्ययनों से प्राप्त नतीजों को भी बल मिलता है, जिनमें कहा गया था कि पीटे जाने वाले बच्चों का बौद्धिक स्तर (आई क्यू) कम पाया गया। यह भी पता लगा कि बच्चों की बार-बार पिटाई का संबंध उनकी चिंता, व्यवहारगत समस्याओं, आक्रामता का खतरा बढ़ने या आपराधिक आचरण, अवसाद और अधिक शराब पीने से है।

अंग्रेजी में सोचो और भारतीय ढर्रे में काम करो'

व्यापार में सफल होने के लिए आपको सोचना तो अंग्रेजी में होगा लेकिन काम भारतीय ढर्रे में करना होगा। कुछ प्रमुख सफल भारतीय कंपनियों के व्यापार करने के तरीके को लेकर किए गए अध्ययन में इसका खुलासा किया गया है।
वार्टन स्कूल ऑफ द यूनीवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वेनिया के चार प्रोफेसरों द्वारा दो वर्षो तक भारत के प्रमुख कंपनियों के काम करने के तरीकों के अध्ययन के बाद पता चला कि किस प्रकार वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करने में सफल रही।
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पीटर केपेली, हरबीर सिंह, जितेन्द्र सिंह और माइकल उसीम ने भारतीय कंपनियों के व्यापार के तरीके का विस्तृत अध्ययन और 'द इंडियन वे: हॉव इंडियाज टॉप बिजनेस लीडर्स आर रिवोल्यूशनिंग मैनेजमेंट' नामक पुस्तक प्रकाशित किया।
पुस्तक में टाटा समूह की टाटा सन्स कंपनी के कार्यकारी निदेशक आर.गोपालकृष्णन का एक बयान प्रकाशित है, जिसमें उन्होंने कहा, ''हम अंग्रेजी में सोचते हैं और भारतीय ढर्रे में काम करते हैं।'' भारतीय प्रबंधकों के बारे में गोपालकृष्णन ने कहा कि वे भले ही सोचते अंग्रेजी में हैं लेकिन काम भारतीय ढर्रे में ही करते हैं।
गोपालकृष्णन ने विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों से कहा था, ''कई विदेशी भारत आते हैं और वे भारतीय प्रबंधकों से बातचीत करते हैं। वे पाते हैं कि भारतीय प्रबंधक स्पष्ट, बुद्धिमता पूर्वक और विश्लेषण करते हुए सोचते हैं। ''
पुस्तक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारतीय कंपनियां किस तरह काम करती हैं। अध्ययन दल में शामिल प्रोफेसरों ने कहा कि भारतीय कंपनियों के प्रबंधकों का अपने कर्मचारियों के साथ गहरा संबंध होता है। वे कर्मचारियों का मनोबल बनाए रखते हैं। प्रबंधकों का कहना था कि वे अपने कर्मचारियों को कंपनी की संपत्ति मानते हैं।
भारतीय कंपनियां अच्छाइयों को ग्रहण करती है साथ ही नवीनीकरण पर भी बल देती हैं। अध्ययन के अनुसार भारतीय उद्योगपति बेहद रचनात्मक होते हैं और सभी की भलाई पर जोर देते हैं।
विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों का कहना है कि पश्चिमी देशों के कंपनी प्रबंधकों को भारतीय कंपनियों से काफी कुछ सीखना चाहिए

सीरत नहीं सूरत की नकल करते हैं ज्यादातर लोग

अमिताभ बच्चन का एक फिल्मी संवाद है मूंछे हो तो नत्थूलाल जैसी। कभी गौर किया है कि हर शख्स किसी न किसी की तरह दिखता है या दिखने की कोशिश करता है।
बेचारे नत्थूलाल तो मोटी मूंछों वाले किरदार थे लेकिन लोग खुद को आकर्षक व्यक्तित्व के रूप में पेश करना चाहते हैं। हर जमाने में किसी न किसी व्यक्तित्व का क्रेज होता है। लोग उनकी छवि से प्रेरित होते हैं और उनका अनुसरण करते हैं। भारतीय परिपेक्ष्य में बात करें तो लोग अपने-अपने आइकन से उनके बालों की शैली, परिधान और रूपरेखा की नकल करते हैं। उनके जैसा दिखने की कोशिश करते हैं।
सत्तर के दशक में अभिनेत्री साधना को रुपहले पर्दे पर देख युवतियां उनकी तरह के बालों को रखने लगी। तब से महिलाओं में बाल रखने की इस शैली का नाम साधना कट पड़ गया। बॉलीवुड के शोमैन राजकपूर की मूछों की शैली तो आज भी देखने को मिलती है। वो पतली-पतली मूछें तो आज भी पुरुषों में प्रचलित हैं।
मनोविज्ञानी मधु प्रकाश के अनुसार एक-दूसरे को देखकर हाव-भाव बदलना आम बात है। लोग व्यवहार तक बदल डालते हैं। सिनेमा का प्रभाव आम जनों पर बहुत अधिक पड़ता है। वहीं बच्चों अपने साथियों और टीवी से काफी कुछ सीखते हैं।
टीवी और इंटरनेट ने भी समाज पर काफी प्रभाव डाला है। यह सामाजिक और आर्थिक प्रभाव डालने में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुआ है। यह परिवर्तन का युग है। तेजी से बदलती दुनिया में उपभोक्ता समाज में लोगों के रहन-सहन के तौर तरीके भी बदले हैं। लोग मार्केटिंग के संप्रेषण से बहुत प्रभावित हो रहे हैं। हर घर अपने आप में एक अनुकृति की तरह व्यवहार कर रहा है।
समाजशास्त्री भी इस तरह की कृत्रिमता की केस स्टडी कर रहे हैं। सिनेमा, टीवी, बाजार और इंटरनेट ने लोगों की सोच को खंगाल कर रख दिया है। समाजविज्ञानियों का कहना है मीडिया में फोर सी यानी सिनेमा, क्रिकेट, अपराध और सेलिब्रिटी को जिस प्रकार से परोसा जा रहा है, उसका लोगों पर प्रभाव पड़ रहा है।
युवाओं में क्रिकेटर धोनी जैसे बाल, आमिर खान से प्रेरित होकर गजनी फिल्म जैसी हेयर स्टाइल साबित करते हैं कि लोग अपने आइकन जैसा दिखना चाहते हैं।

नोट गिनिए... और बेहतर महसूस कीजिए

नोट गिनने से लोग खुद के बारे में अच्छा महसूस करते हैं भले ही वे नोट किसी और के हों। नोट गिनने से लोग अंदर से मजबूत होते हैं तथा उनमें विश्वास आता है। इसलिए बेहतर महसूस करना चाहते हैं तो नोट गिनिए।
साइकोलाजिक्ल साइंस में इस आशय का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार पैसे से प्यार भले ही नहीं खरीदा जा सकता हो लेकिन इसका हमारी भावनाओं पर गहरे तक असर होता है।
टेलीग्राफ के अनुसार इस अध्ययन में कहा गया है कि नोट गिनने के कई मनोवैज्ञानिक फायदे हैं जैसे कि डर दूर होता है और आदमी बेहतर महसूस करता है। यह अध्ययन धन की सांकेतिक शक्ति का आकलन करने के लिए किया गया था। इसके तहत कई परीक्षण किए गए।
इसमें कहा गया है कि पहली रात नोट गिनने वाला व्यक्ति हो सकता है कि अगली रात बार में किसी महिला को प्रोपोज करे, उससे बात करे क्योंकि नोट गिनने से उसमें विश्वास आ जाता है।
अध्ययन की अगुवाई करने वाली कैथलीन वोहस (मिन्नेसोटा यूनिवर्सिटी) ने धन के मनोवैज्ञानिक असर के बारे में कहा, ये प्रभाव धन की ताकत के बारे में बोलते हैं, भले ही यह प्रतीक रूप हो। लेकिन यह अवधारणा को बहुत वास्तविक तक बदल देता है

याद आती हैं, खुशनुमा दिन की मीठी- मीठी बातों की

हर व्यक्ति के जीवन में एक दिन ऐसा जरूर होता है जिसकी यादें उसे हमेशा सुखद महसूस होती हैं। परेशानी के समय में इस दिन की याद पीड़ा कम करती हैं और प्रेरणा भी देती हैं।
यह दिन जीवन में कब आ जाए, कहा नहीं जा सकता। कोई खास घटना होती है और साल के 365 दिनों में से केवल एक दिन ही उम्र भर के लिए खास बन जाता है। इस खास दिन की यादें हमेशा ताजा रहती हैं।
कुछ पश्चिमी देशों में अक्तूबर माह के तीसरे शनिवार को स्वीटेस्ट डे मनाया जाता है। स्वीटेस्ट डे यानी मीठी मीठी यादों वाला एक मीठा मीठा सा दिन।
एक गैर सरकारी संगठन चला रहे अनुभव शर्मा कहते हैं जिंदगी रोज की तरह गुजर रही थी। कड़कड़ाती ठंड के मौसम में, शाम को मैं अपने दोस्तों के साथ घूम रहा था। मैंने एक महिला को ठिठुरते हुए देखा। उसके पास पर्याप्त गर्म कपड़े नहीं थे। मैंने एक स्वेटर और कोट पहन रखा था। अपना स्वेटर उतार कर मैंने उस महिला को दे दिया। उसकी आंखों में स्वेटर को देख कर जो चमक दिखी उसे मैं आज तक नहीं भूल पाया।

दिमागी शक्ति बढ़ानी है तो दें इंटरनेट की खुराक

उम्र के साथ शिथिल होते दिमाग को टॉनिक देना है और डिमेंशिया को कोसों दूर रखना है तो फिर जमकर इंटरनेट का प्रयोग करें। एक अध्ययन में यह पाया गया है कि इंटरनेट के प्रयोग से बुजुर्गों की दिमागी शक्ति बढ़ जाती है और इससे समय के साथ कमजोर होते दिमाग को डिमेंशिया से होने वाले खतरे पर लगाम भी लगती है।
अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल ने इस अध्ययन में पाया कि इंटरनेट दिमाग को पढ़ने से ज्यादा क्रियाशील बनाता है और इसका असर काफी लंबे समय तक रहता है।
द संडे टाइम्स की इस खबर में दल के अगुवा प्रो गैरी स्मॉल ने बताया कि हमने पाया कि बूढे़ लोगों में इंटरनेट का प्रयोग चाहे वह कम समय का भी क्यों न हो, उनके दिमाग को क्रियाशील बनाता है। उन्होंने कहा, सबसे चौंकाने वाली खोज यह थी कि इंटरनेट पर किया काम उस हद तक प्रभावी होता है, जितनी पढा़ई भी नहीं होती।
इस अध्ययन को अंजाम देने के लिए 55 से 76 साल के 24 लोगों के ब्रेन स्कैन का विश्लेषण किया गया। उनमें से आधे इंटरनेट का प्रयोग करते थे, जबकि बाकी नहीं। इस स्कैन के बाद उन्हें घर भेज दिया गया और इंटरनेट का इस्तेमाल करने को कहा गया।
हर दिन एक घंटा और पंद्रह दिन तक लगातार इंटरनेट के प्रयोग के बाद उनके दिमाग का दोबारा स्कैन किया गया। दोबारा हुए स्कैन से मालूम चला कि दिमाग का वह हिस्सा जो दष्टि, भाषा और याददाश्त का जिम्मा संभालता है वह ज्यादा क्रियाशील हो गया था

आधुनिक हो गया दादी नानी का एजेंडा

गए वो दिन जब दादी नानी की परिभाषा झुकी कमर, सफेद बालों और चश्मा चढ़ी बुजुर्ग महिला की हुआ करती थी, जिसकी भूमिका नाती पोतों को कहानी सुनाने तक सीमित थी। बदलते समय ने अब चुस्त तंदरूस्त दादी नानी के एजेंडे में आधुनिक तरीके से बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी डाल दी है।
     
कामकाजी अभिभावकों की व्यस्तता को देखते हुए दादी नानी ने भी अपने सामने मौजूद चुनौतियों को स्वीकार कर मोर्चा संभाल लिया है। करीब साल भर पहले तक कृषि विभाग में काम करने वाली उषा तैलंग अब अपनी पोती को सुबह तैयार कर, उसे स्कूल बस तक छोड़ने जाती हैं, दोपहर को उसे लेने जाती हैं, होमवर्क कराती हैं और उसके साथ वीडियो गेम भी खेलती हैं।
वह बताती हैं रिटायर हो चुकी हूं और अब पोती की ज़िम्मेदारी संभाल रही हूं। मेरा बेटा और बहू दोनों ही नौकरी करते हैं। पोता सवा साल का है इसलिए अभी उसकी देखभाल में भागदौड़ नहीं करनी पड़ती। मनोविज्ञानी विभा तन्ना कहती हैं बच्चों को दादी नानी से गहरा लगाव होता है। यही बात उनके भविष्य को निखारने में बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। अभिभावकों की गैर हाजिरी में दादी नानी उनकी जितनी अच्छी तरह देखभाल करेंगी उतनी कोई नहीं कर सकता।
सात वर्षीय नाती को यूटयूब पर कहानियां सुनाने में बिमला वाष्र्णेय को खूब मजा आता हैं। वह बताती हैं उसके चक्कर में मैंने कई कहानियां खोज डालीं। अब मजा भी आता है। नाती की खातिर मैंने कंप्यूटर चलाना और पीत्ज़ा, पास्ता, मैकरोनी बनाना सीखा।
बिमला कहती हैं कि अभी नाती की सर्वाधिक देखभाल की ज़रूरत है। उसके साथ दोस्ताना रिश्ता रखते हुए उसे नई-नई जानकारी देना ज़रूरी है। बच्चों अनगढ़ मिट्टी की तरह होते हैं, जैसा हम चाहें, उनका भविष्य गढ़ सकते हैं। लेकिन इसके लिए उनकी बातों में दिलचस्पी लेकर उनका विश्वास जीतना ज़रूरी होता है।
कुछ देशों में 23 जुलाई को गॉर्जियस ग्रैंडमा डे मनाया जाता है जिसका कारण शायद दादी नानी की महत्वपूर्ण भूमिका ही है। भारत में ऐसे किसी दिन का चलन नहीं है लेकिन संयुक्त परिवार की परंपरा होने के कारण घरों में दादी नानी का खास महत्व है। आधुनिकता की मार ने ज्यादातर संयुक्त परिवारों की नींव हिला दी है, लेकिन नौकरीपेशा माता पिता के पास अपने बच्चों को दादी नानी के हवाले करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
विभा कहती हैं कि दादी नानी से रिश्ता अटूट होता है जो बच्चों के मानसिक विकास में बहुत सहायक होता है। उनके पास उम्र का अनुभव भी होता है इसीलिए बच्चों की परवरिश में उनकी अहम भूमिका हो सकती है। उषा कहती हैं कि पोती को नियमित होमवर्क कराते समय मैंने महसूस किया कि आज के बच्चों के लिए कितना कठिन समय आ गया है। हम लोगों ने अपने समय में प्रोजेक्ट, स्लाइडस आदि के बारे में नहीं सुना था। आज तो बच्चों के साथ अगर बड़े न लगें तो उनका होमवर्क मुश्किल हो जाएगा।
वह कहती हैं कि मेरे बेटे बहू चाह कर भी इतना समय नहीं निकाल पाएंगे। ऐसे में मुझे ही हिम्मत करनी होगी। मैंने तो पोती का प्रोजेक्ट बनाने में उसकी काफी मदद की। साथ ही खुद भी सीख लिया। विभा कहती हैं कि बदलते समय के साथ खुद को बदल कर दादी नानी एक रोल मॉडल पेश कर रही हैं। यह ज़रूरी भी है, उनके लिए भी और बच्चों के लिए भी।

बाल-बच्चेदार पुरुष करते हैं ज्यादा तरक्की

अगर आप सोचते हैं कि आपके बच्चे बस निजी जिंदगी की कोमल भावनाओं से जुड़े हैं, तो अभी आपको यह जानकारी नहीं है कि वे सिर्फ दिल का सुकून ही नहीं, बल्कि तरक्की का रास्ता भी हैं।
        
बच्चे अपने माता-पिता की पूरी जिंदगी और उनकी सोच को एक झटके में बदल देते हैं। उनकी खुशियां, उनका लालन पालन और उनकी सही परवरिश ही माता पिता की जिंदगी का केंद्र बन जाता है। 
       
अगर माता पिता कामकाजी हों, तो माना जाता है कि अब उनका मन काम के बजाय अपने बच्चों में लगा रहता है, लेकिन यह सही नहीं है। डेली मेल में प्रकाशित सर्वेक्षण रिपोर्ट में इसका खंडन करते हुये बताया गया है कि बाल बच्चेदार लोग अपने काम में ज्यादा ध्यान देते हैं और इसी कारण उनकी ज्यादा तरक्की होती है।
        
सर्वेक्षण में पाया गया है कि पुरुषों पर इसका ज्यादा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बच्चों के जन्म के बाद पिता को उसके पालन पोषण की जिम्मेदारी का अहसास होता है और वह काम में अधिक ध्यान देने लगता है। पुरुष अपनी इसी लगन के कारण तरक्की की सीढियां चढ़ने लगता है।
सर्वेक्षण में ब्रिटेन के 4600 कर्मचारियों से पूछे गये सवाल के आधार पर यह जाना गया है कि बाल बच्चेदार 74 प्रतिशत पुरुषों को नौकरी में कम से कम पांच पदोन्नतियां मिलती हैं, जबकि बिना बच्चों वाले 65 प्रतिशत पुरुषों को ही तरक्की मिलती है। 

बच्चों के लिए ज्यादा डांट-फटकार ठीक नहीं

बचपन में जिन बच्चों को ज्यादा डराया तथा धमकाया जाता है, उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है और प्रौढ़ावस्था में इन बच्चों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
ब्रिटेन के मनोचिकित्सकों के अनुसार जिन बच्चों को बचपन में ज्यादा डांट-फटकार का सामना करना पड़ता है अथवा जिनके सहपाठी उन्हें पीटते हैं, तो ऐसे बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य न केवल प्रभावित होता है, बल्कि 50 वर्ष की आयु में इन्हें अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
ब्रिटेन के किंग्स कॉलेज लंदन के सायकिएट्री संस्थान के मनोचिकित्सक यू ताकीजावा की अगुवाई में किए गए इस अध्ययन की रिपोर्ट अमेरिकन जर्नल ऑफ सायकिएट्री में शुक्रवार को प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस संबंध में 40 वर्ष पूर्व कराए गए अध्ययन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
इस अध्ययन में इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स में 1958 में एक हफ्ते में जन्में 7,771 बच्चों को शामिल किया गया था। इन बच्चों के माता-पिता से पूछा गया था कि बचपन में उनके साथ घर में क्या बर्ताव होता था और कक्षा में सहपाठी उनके साथ क्या व्यवहार करते थे।
माता-पिता से यह जानकारी भी ली गई कि सात से 11 वर्ष की उम्र में क्या बच्चों को ज्यादा डांट-फटकार का सामना करना पड़ा था। अब 50 वर्ष की उम्र में पहुंच चुके इन व्यक्तियों के अध्ययन से यह पता चला है कि उनमें अवसाद, तनाव और आत्महत्या करने जैसी प्रवृति अधिक देखने को मिली। ये सामाजिक रूप से भी अलग-थलग पाए गए हैं।
सायकिएट्री संस्थान की मनोचिकित्सक लुईस आर्सेनल्ट का कहना है कि अब आप अपने दिमाग से यह धारणा निकाल दीजिए कि बच्चों को बचपन में ज्यादा डांटना या फटकारना जरूरी होता है। शिक्षकों, माता-पिता और नीति निर्माताओं को इस बात से वाकिफ होना चाहिए कि बचपन में स्कूल अथवा घर में बच्चों के साथ जो व्यवहार होता है उसके परिणाम बहुत बाद में दिखाई देते हैं।
 

प्राथमिकता के पत्थर पहले चुनें, रेत बाद में

कॉलेज के कुछ विद्यार्थी जीवन की प्राथमिकताओं पर चर्चा कर रहे थे। सभी ने कुछ ना कुछ कहा पर उन्हें स्पष्ट सुझाव नहीं मिल रहे थे। सभी शिक्षक के पास गए। उन्होंने शिक्षक से कहा कि वो अक्सर प्राथमिकताएं तय करने में गलती कर जाते हैं। इससे गलत दिशा में प्रयत्न करने लगते हैं।  शिक्षक उन्हें कक्षा में ले गए। उन्हें एक कांच का जार, कुछ पत्थर और अन्य सामग्री लाने को कहा। शिक्षक जार में पत्थर डालते गए।
जब एक भी और पत्थर डालने की जगह नहीं बची तो शिक्षक ने पूछा कि क्या जार भर गया? सभी ने हामी भर दी। शिक्षक ने कुछ कंचे जार में डाले। जार हिलाते ही कंचे पत्थरों के बीच की खाली जगह में भर गए। शिक्षक ने पूछा कि क्या अब जार पूरा भर गया है, सभी ने तुरंत स्वीकारा। अब शिक्षक ने कुछ रेत ली और जार में डाली। थोड़ा ही हिलाने पर रेत ने बची हुई खाली जगह भर ली। शिक्षक ने अब विद्यार्थियों से कहा कि अगर इस जार में सबसे पहले मैं रेत डाल देता तो एक भी कंचे और पत्थर के लिए जगह न बचती।

अगर इस जार को जीवन की तरह समझा जाए तो उसमें भरने वाल सारी चीजों की प्राथमिकता कुछ इस तरह हो। हमारा परिवार, रिश्तेदार, शिक्षा और स्वास्थ्य उन पत्थरों की तरह हो जिसे सबसे पहले जार में डालना है। हमारी नौकरी, व्यवसाय और  इससे जुड़े लोग कंचों की तरह हों जिनकी प्राथमिकता दूसरे नंबर पर हो। इसी तरह सारी विलासिता, कपड़े, गहने और बाकी की भौतिक वस्तुएं रेत की तरह हों जिनका स्थान तीसरे नंबर पर हो।

कई सीख
व्यक्तिगत तौर पर और अभिभावक के रूप में हमें दुविधा रहती है कि कौन सा डॉक्टर अच्छा है? बच्चों के लिए कौन स्कूल सही रहेगा? बच्चों के लिए कौन सा खेल उचित होगा? कई बार तो दुविधा में जैसा दूसरे कर रहे हैं, उन्हीं की देखा-देखी निर्णय लिए जाते हैं।  बेहतर शिक्षा हो या चिकित्सा से संबंधित सेवा या फिर किसी अन्य क्षेत्र में चुनाव हमें स्वयं की कुछ प्राथमिकताएं निर्धारित करनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र से संबंधित विशिष्ट चीजों के साथ समझौता ना करना पड़े। अब जब बात शिक्षा और स्कूल के चयन की आती है तो अमूमन अभिभावकों की प्राथमिकता बड़ी विचित्र और अस्पष्ट रहती है। उन्हें लगता है कि स्कूल नामी हो, इमारत बड़ी हो। आजकल स्कूल एक ‘स्टेटस सिंबल’ की तरह हो गया है। यहां प्राथमिकता कुछ इस तरह हो कि स्कूल किन नैतिक मूल्यों एवं धारणाओं के आधार पर बनता है। वहां के शिक्षक अच्छे इंसान हों और मधुरभाषी, उदार और संयमी हों जिनके पास विषय के ज्ञान केअलावा नैतिक और मानवीय मूल्यों का खजाना हो।

फिर आती है अन्य सुविधाओं, कक्षा, मैदान और आधुनिक उपकरणों की बारी और शिक्षण पर लगने वाला शुल्क। फिर आता है खाने और आने-जाने की सुविधा का नंबर। यहां सुविधाओं पर ध्यान देना जरूरी है परंतु इनमें समझौता किया जा सकता है लेकिन प्राथमिकता के हिसाब से सीखने की प्रक्रिया और शिक्षा से समझौता नहीं होना चाहिए।
हर क्षेत्र में हमें तय करना होगा कि कौन सी चीज ‘पत्थर’ होगी और कौन सी ‘कंचे’ और कौन सी ‘रेत’ होगी। इसके अलावा अभिभावकों की दुविधा यह भी होती है कि स्कूल कब हो? यानि उन्हें औपचारिक शिक्षा किस उम्र से दी जाए? कई अभिभावक दो-तीन महीने के अंतर को भूलकर जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि बच्चों की उम्र मानक के हिसाब से हो। जहां बच्चों को नर्सरी (प्रथम कक्षा) में ढाई से साढ़े तीन साल में जाना चाहिए। वहीं कई माता-पिता दो या सवा दो साल मे भी भर्ती करा देते हैं। इस वजह से कक्षा के बच्चों की उम्र का अंतर डेढ़ साल तक हो जाता है और छोटी उम्र वाले बच्चों की तुलना उसी की कक्षा के बड़ी उम्र के बच्चों से की जाने लगती है। बच्चों को लगता है कि उनमें कुछ कमी है। इस तरह छोटे बच्चों पिछड़ जाते हैं क्योंकि सहपाठियों की उम्र का अंतर बना रहता है।

इसलिए अभिभावक हर क्षेत्र में, खासकर शिक्षा के मामले मेंअपनी प्राथमिकताएं निश्चित कर, सोच-समझकर फैसला लें क्योंकि सवाल बच्चों के सुनहरे भविष्य का है।

समस्या-समाधान
माता-पिता दोनों की नौकरी की वजह से बच्चों को जल्दी स्कूल भेजना पड़ता है। ऐसी किसी स्थिति में औपचारिक शिक्षा जल्दी शुरू ना करवाकर केवल गतिविधियों और खेल-कूद के लिए प्ले स्कूल भेजें, जहां समय से पहले लिखने पर जोर ना दिया जाए।

बच्चों के स्कूल के चयन में या विषय के चयन में आप असमंजस की स्थिति में रहते हैं और अक्सर दूसरों की राय और सलाह से निर्णय लेते हैं। बच्चा आपका है इसलिए स्कूल का चयन आपकी अपनी राय और मानक के हिसाब से होना चाहिए। बड़े बच्चों के विषय चुनने के मामले में भी अपने स्वयं और बच्चों की राय एवं रुचि महत्वपूर्ण हैं। दूसरों से राय लें और निर्णय खुद ही लें।

कोट
व्यक्ति की सफलता उसके द्वारा निर्धारित प्राथमिकताओं के अनुपात में होती है। प्राय: माता-पिता बनने के बाद बच्चों ही महत्वपूर्ण प्राथमिकता होते हैं।

अटूट डोर में बांधे प्रकृति का यह अनमोल रिश्ता

निशा बहुत खुश थी। वह दुबारा मां जो बनने जा रही थी। उसने सोच रखा था कि अपने पांच साल के बेटे अनुज को यह खबर बहुत अलग तरीके से बताएगी ताकि अनुज पूरी तरह से आने वाले बच्चे के लिए तैयार रहे और खुशी-खुशी उसे अपने परिवार में शामिल कर ले। निशा ने अनुज से कहा कि एक नन्ही परी उसका ख्याल रखने के लिए आने वाली है, जो बहुत प्यारी होगी। निशा ने बेटे को कहा कि उसे भी अपनी बहन का बहुत ध्यान रखना होगा, अच्छी बातें सिखानी होंगी। अनुज खुश हो गया। अनुज नए मेहमान के आने का इंतजार करने लगा। वह हर रोज मम्मी के पास जाकर प्यार से एक गाना गाता- ‘तुम हो मेरी नन्हीं सी किरण’।
निशा आश्वस्त थी कि अनुज अपनी बहन का बहुत प्यार से ख्याल रखेगा, क्योंकि ज्यादातर बच्चे अपने भाई-बहनों के पैदा होने के बाद ईर्ष्या करने लगते हैं। कुछ महीनों बाद निशा के दूसरे बच्चे के पैदा होने का समय नजदीक आ रहा था कि कुछ स्वास्थ्य संबंधी तकलीफों की वजह से निशा को समय पूर्व अस्पताल में जाना पड़ा। उसने एक बच्ची को जन्म दिया परंतु बच्ची की हालत नाजुक थी और वह काफी कमजोर थी। बच्ची को सभी आपातकालीन स्वास्थ्य सुविधाएं दी गईं, किंतु हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। निशा और उसके पति ने अभी तक अनुज को बच्ची से नहीं मिलवाया था क्योंकि अस्पताल में छोटे बच्चों के आने की इजाजत नहीं थी। डॉक्टर ने निशा को समझाया कि बच्ची का बचना मुश्किल है और हालत सुधरने के बजाय बिगड़ रही है। अब तक तो निशा भी समझ चुकी थी परंतु अनुज को यह सब किस तरह बताए ये नहीं समझ पा रही थी। अनुज मां से बच्ची को देखने जाने की जिद करने लगा। बहुत समझाने पर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसके माता-पिता तैयार हो गए। उन्हें लगा कि शायद वो फिर उसे देख भी ना पाएं, तो वह उसे अस्पताल ले गए। वरिष्ठ नर्स ने बच्चे को अंदर जाने से मना किया परंतु अनुज मासूमियत से बोला कि उसे अपनी बहन को गाना सुनाना है। अंतत: नर्स मान गई। अनुज बच्ची के पास पहुंचा, मुस्कुराया और गाने लगा ‘तू है मेरी नन्हीं सी किरण, धूप सी आशा की सपनों की किरण’। अभी वह गाना गा ही रहा था कि बच्ची की धड़कन सामान्य होने लगी और कुछ हलचल भी होने लगी। निशा के आंसू बह निकले। नर्स ने उसे आगे गाने को कहा। ‘सोने सी, चांदी सी, उजली सी किरण। भैया की आंखों का तारा है किरण’। सभी की आंखें नम हो गई जब बच्ची की हालत में सुधार दिखने लगा। अनुज अब रोज अस्पताल आता और गाने-गाते कभी बच्ची का हाथ छूता तो कभी माथा। कुछ दिन बाद बच्ची स्वस्थ्य हो गई और उसे लाने की तैयारी होने लगी। यह एक चमत्कार था।
कई सीख:
प्यार में अविश्वसनीय ताकत होती है इसलिए प्यार का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हम सभी की यादों में सबसे ज्यादा जगह हमारे भाई-बहन के साथ बिताए समय की होती है। परिपक्व होने के बाद ये यादें खट्टी-मीठी खुशियों की तरह गुदगुदाती हैं, हंसाती हैं और रुलाती हैं। परंतु बचपन में कई बार हमारी लड़ाई, एक दूसरे से तुलना और किसी एक का ज्यादा अच्छा प्रदर्शन इतना सुहाना नहीं लगता। उस क्षण तो यह एक संघर्ष सा लगता है। घर के भीतर ही जंग और प्रतिस्पर्धा का खिंचाव भरा माहौल रहता है। कई बार तो पारिवारिक जलसों, मुलाकातों और किटी पार्टी में महिलाओं के बीच चर्चा का विषय बच्चों के विवाद, आपसी समस्याएं और अजीबो-गरीब नुस्खे रहते हैं। इस बात पर चिंतन जरूरी है कि खून का रिश्ता जो कि सबसे ज्यादा मजबूत है उसी में भौतिक चीजों के लिए विवाद उभर आते हैं या फिर हर छोटी-बड़ी चीज के लिए तुलना और बराबरी उन्हें एक दूसरे के विपरीत खड़ा कर देती है। अगर गौर किया जाए तो भाई-बहन का वर्तमान और भविष्य में रिश्ता कैसा होगा, यह उनकी संपूर्ण परवरिश पर निर्भर करता है और माता-पिता का आपसी व्यवहार, उनका व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने का तरीका, बच्चों के बीच निष्पक्ष रवैया और समस्त प्रकार के संतुलन पर निर्धारित रहता है। जहां एक तरफ भाई-भाई संपत्ति के लिए विवाद करते हैं वहीं हमारे सामने कई उदाहरण है जहां भाई ने भाई के लिए अंगदान किया या कोई महान त्याग किया है। अभिभावक के तौर पर यह समझाना अत्यंत जरूरी है कि यह हमारी ही जिम्मेदारी है कि हमारे बाद बच्चों के लिए अगर कोई जरूरी निवेश है तो वह धन सम्पत्ति नहीं बल्कि भाई-बहन या भाई-भाई का आपसी प्रेम है जिसका विकास हमारे द्वारा ही हो सकता है। हमारी छोटी-छोटी अनजानी नादानियां जैसे दोनों की बराबरी, एक जैसे व्यवहार की उम्मीद, समान और सर्वोत्तम प्रदर्शन की महत्वकांक्षा और हर दिन अनगिनत गलतियों पर तुरंत रोक लगानी पड़ेगी।
भाई प्रकृति का दिया एक सबसे प्यारा दोस्त है। -जीम बैपिस्ते  
भाई-बहन दो हाथ या दो पैर की तरह हमेशा साथ रहते हैं। - वियतनामी कहावत
 
 
समस्या-कारण-समाधान
- समस्या: अक्सर बड़ा बच्चा घर में अपने छोटे भाई-बहन के जन्म के बाद गुमसुम रहता है और दोनों में अक्सर लड़ाई-झगड़े होते हैं।
- कारण : आपके पहले बच्चे को लगता है कि उसके माता-पिता अब किसी और के भी माता-पिता है, जबकि छोटा बच्चा तो पैदा होने के बाद से ही अपने अभिभावकों को बड़े बच्चे के माता-पिता के रूप में जानता है और सामान्य रहता है, जबकि बड़े बच्चे के मन में असुरक्षा की भावना जन्म लेने लगती है।

- समाधान: आप छोटे के साथ-साथ बड़े बच्चे का भी ध्यान रखें। किसी एक का पक्ष लिए बगैर उन्हें समझाएं और कई बार उन्हें स्वयं सुलझाने दें।

जारों बीज की उत्पत्ति एक बीज देकर ही संभव

गर्मियों के दिन थे। बस स्टॉप पर कुछ लोग बस के आने का इंतजार कर रहे थे। बस आते ही लोग जल्दी जल्दी बस में चढ़ने लगे। इनमें एक बुजर्ग भी थे। उतरे और चढ़ने वालों की धक्का-मुक्की में जैसे-तैसे वह बस के अंदर जा पाए और इन सबके बीच उनका एक जूता बस के बाहर गिर गया। बस चल पड़ी। बुज़ुर्ग व्यक्ति ने ज्यादा समय ना लगाते हुए अपना दूसरा जूता उतारा और तुरंत बस के बाहर फेंक दिया।
उनके पास खड़े व्यक्ति ने उनका जूता फेंकने का कारण पूछा। बुजुर्ग बोले मेरे पास एक ही जूता रह गया था जो मेरे किसी काम का नहीं है मैंने तुंरत जूता इसलिए फेंका ताकि जिस किसी को मेरा पहला जूता मिले उसकी जोड़ी पूरी हो जाए और शायद जूते उसके काम आ जाएं। मेरे लिए जहां पहला जूता वापस पाना मुमकिन नहीं इसलिए मैंने दूसरा जूता बाहर फेंक दिया। यह बोलते वक्त बुजुर्ग के चेहरे पर अफसोस नहीं बल्कि संतुष्टि भरी मुस्कान थी।
कहानी दो
मैक्सिको में हर साल कॉर्न फेस्टिवल मनाया जाता था। पिछले 3 सालों से स्टीवन को सर्वश्रेष्ठ किसान के लिए चुना जा रहा था। स्टीवन अपने आसपास के खेतों में किसानों को अपने कॉर्न के बीज बांटता था। एक दिन स्टीवन की पत्नी ने उसे रोका कि अगर वो इसी तरह अपने सर्वोत्तम बीज बांटेगा तो हो सकता है कि आने वाले ंसालों में कोई और विजेता बन जाए। स्टीवन मुस्कराया और उसने कहा मैं अपनी अच्छी फसल के स्वार्थ में ही ये करता हॅू। मेरे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है मेरे कॉर्न की उच्च श्रेणी। मैं आसपास के किसानों को अपना बीज देता हूं ताकि कहीं से मेरे पौधों को खराब पराग के आने की गुंजाइश ना हो। ना हवा से ना किसी कीट से। मेरे कॉर्न की गुणवत्ता तभी बनी रहेगी जब पौधों को हर क्षेत्र में उत्तम चीजें मिलेगी और इसके लिए आसपास के वातावरण का हर तरह से अच्छा होना जरूरी है।



कुछ ज्ञान के तथ्य हों, जानकारी हों, गुण या भौतिक चीजें अक्सर लोग इन्हें किसी से बॉटना पंसद नहीं करते। वे सोचते हैं कि किसी से ज्ञान बांटने पर उनकी पूछ कम हो जाएगी। इसी तरह अक्सर भौतिक चीजें भी सहेज कर रखते हैं चाहे उसे रखने से उन्हें कोई फायदा न हो। भले ही वह किसी और को इसकी जरूरत हो, नहीं देते। जिस तरह बुज़ुर्ग ने अपना दूसरा जूता इसलिए फेंक दिया था कि वे किसी के काम आ जाए, हमें अपनी भौतिक चीज़ों को सिर्फ सहेजने के हिसाब से ना रख कर खुले दिल से उसे ज़रूरतमंद को देना चाहिए।
हमारे बच्चों उसी तरह बर्ताव करते हैं जैसा वे अपने आसपास और अपने अभिभावकों को करते देखते हैं। कई बार तो माता पिता स्वयं बच्चों को कोई चीज या ज्ञान दूसरें बच्चों के साथ बांटने या बताने के लिए रोकते हैं। इस तरह बच्चों बचपन से स्वार्थी होना सीखते हैं। जहां तक नैतिक मूल्यों का या सद्गुण का सवाल है, इन्हें  निस्वार्थ न सिर्फ दूसरे को बताना चाहिए बल्कि स्वयं के आचार में लाकर एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। अच्छे गुण बांटने से कम नहीं होते अलबत्ता आसपास स्वस्थ्य वातावरण बना रहता है। अगर हम अपने बच्चों को अच्छी चीजें बांटने देंगे तो इसका फायदा उन्हें ही मिलेगा जिस तरह स्टीवन बीज इसलिए बांटता था ताकि उसकी फसल की गुणवत्ता पर खराब असर ना हो।


उदाहरण1

शीना का गणित अच्छा था और अक्सर सहपाठी उससे अपनी समस्या और सवाल पूछते थे। शीना की मां उसे समस्या हल करने के लिए प्रोत्साहित करती थी क्योंकि इससे ना सिर्फ शीना का गणित और मजबूत हो रहा था बल्कि उसमें आत्मविश्वास बढ़ रहा था। वह कक्षा में सबकी चहेती बन रही थी।
उदाहरण2

रोनित स्कूल में महंगा पेन और बाकी सामान लेकर जाता था। उसके माता पिता उसे किसी से कोई चीज़ साझा करने के लिए मना करते थे। वह स्वार्थी बन रहा था। परीक्षा में वह कम्पास बॉक्स भूल गया, जब दोस्तों से पेन मांगना पड़ा तब वह शर्मिदा हुआ, क्योंकि उसने कभी किसी की मदद नहीं की थी।

समस्या-समाधान

आपके बच्चों आपके कहने पर भी अपनी चीजें किसी से, यहां तक की भाई बहन से भी बांटने के लिए तैयार नहीं होते।
समाधान : उन्हें समझाएं कि किसी भी चीज का आनंद या महत्व अकेले इस्तेमाल करने में नहीं। संतुष्टि दूसरों के साथ चीजें साझा करने से ही आती है। उन्हें प्रकृति के उदाहरण दें।


मनुष्य सामाजिक प्राणी है और उसका अस्तित्व अकेले संभव नहीं क्योंकि हमारे विभिन्न क्षेत्र में दूसरों पर निर्भरता है। अगर हमारे बच्चों स्वार्थी होंगे तो इसका असर उनके आने वाले जीवन पर रहेगा।
कोट
हमें जो मिला है उससे जीवन बनता है, हम जो देते हैं उससे हम जिंदगी बनाते हैं।                  —विंस्टन चर्चिल
कोई भी इंसान इसलिए सम्मानित नहीं किया जाता कि उसे क्या मिला। उसे सम्मान मिलता है कि उसने क्या दिया।         
                      —कैल्विन कूलिज

छोटे से बस्ते में रख दें गुंजाइशों भरा डिब्बा

खन एक गरीब किसान था। वह पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ पाया था क्योंकि उसके बचपन में आगे पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। वह पढ़ाई के महत्व को समझता था और उसने सोच लिया था कि अपने बच्चों को खूब पढ़ाएगा। लखन की एक बेटी थी सोना। लखन ने जमींदार से कर्ज लेकर सोना को पढ़ाया। अब सोना सोलह साल की हो गई थी और लखन उसे उच्च शिक्षा के लिए शहर के कॉलेज में दाखिला दिलाना चाहता है, लेकिन उसके पास इतने रुपये नहीं थे। जमींदार से रुपये उधार लेने की सोचने लगा परंतु वह अभी तक पुराना लिया कर्जा चुका नहीं पाया था और ब्याज भी बढ़ रहा था। फिर हिम्मत कर वह जमींदार से पैसे की बात करने गया। पहले तो जमींदार ने लखन और सोना को खरी-खोटी सुनाई। फिर एक बड़ा विचित्र प्रस्ताव रखा।
   
जमींदार ने कहा कि वह पुराना कर्ज भी माफ कर देगा और नई रकम भी दे देगा बशर्ते सोना उससे शादी के लिए राजी हो जाए। यह सुनकर लखन दुखी हो गया और उसने अस्वीकार कर दिया। जमींदार ने शर्त थोड़ी बदल दी और एक चाल चली। उसने एक थैली मंगवाई और एक बड़े थाल में सफेद और काली गोटियां रखी थी। वह बोला कि मैं इस थैली में एक सफेद और एक काली गोटी डालूंगा। सोना को एक गोटी चुनकर निकालनी है। अगर वह काली गोटी निकलेगी तो उसे विवाह के लिए मंजूरी देनी होगी और वह मदद भी करेगा। अगर सफेद गोटी चुनी तो सारा कर्जा माफ कर देगा और उसे विवाह भी नहीं करना पड़ेगा। इतना कह जमींदार ने दो गोटियां थैली में डाल दी परंतु सबकी नजर बचाकर उसने धोखे से दोनों काली गोटियां डाली ताकि सोना को शादी के लिए मंजूर होना पड़े। सोना ने यह सब देख लिया था परंतु वह चुप रही।

उसे पता था कि उसे क्या करना है। उसने थैली में हाथ डाला और चुनी हुई गोटी को जानबूझकर गोटियों से भरे थाल में गिरा दिया। उसने सब कुछ इतनी जल्दी किया कि कोई देख नहीं पाया कि उसने किस रंग की गोटी चुनी थी। सोना बोली कि यह पता करने के लिए कि उसने किस रंग की गोटी चुनी थी थैली में बची दूसरी गोटी का रंग जांच लिया जाए। थैली में काली गोटी थी जिससे सभी ने यह मान लिया कि सोना की पहले चुनी गोटी सफेद थी जिसके मुताबिक अब लखन कर्ज से मुक्त था और सोना को शादी भी नहीं करनी पड़ीं। जमींदार कुछ कह ही नहीं पाया कि उसने धोखे से काली गोटियां ही डाली थी।

इस तरह सोना की शिक्षा और सूझबूझ ने न सिर्फ पिता को कर्ज से मुक्त करवाया बल्कि अपनी आगे की उच्च शिक्षा के सुनहरे रास्ते भी खोल दिए। उचित शिक्षा और ज्ञान बच्चों को न सिर्फ सफलता प्रदान करते हैं बल्कि उच्च श्रेणी का जिम्मेदार नागरिक भी बनाते हैं।

कई सीख
यह कहानी बताती है कि शिक्षा कितनी जरूरी है। सोना ने पढ़-लिखकर पिता के सपने को पूरा किया साथ ही आत्मविश्वास और समझदारी से पिता पर आए संकट को भी दूर कर दिया। इसी तरह हम भी बच्चों को शिक्षा के सही मायने समझाते हुए आगे बढ़ने देंगे तो वे हर छोटी-बड़ी समस्या को न सिर्फ समझोंगे बल्कि उसे सुलझाने में हमारे साथ खड़े होंगे और जिम्मेदारी के साथ हमें सलाह भी देंगे। हमें अक्सर एहसास ही नहीं हो पाता कि कब ये बच्चों छोटे से बड़े हो जाते हैं और हमारे बगैर एक कदम न चलने वाले ये दुलारे, हमारा सहारा बन जाते हैं। वे कई बार ऐसे सुझाव देते हैं जो हमारे दिमाग में भी नहीं आते।

उदाहरण : मलाला यूसुफजई हिम्मत और निडरता का पर्याय है जिसे किसी परिचय की जरूरत नहीं। मलाला ने अपनी हिम्मत और दृढ़ निश्चय से एक मिसाल कायम की है जो आने वाली कई पीढ़ियों को शिक्षा के लिए प्रेरित करेगी। आज मलाला सोलह साल की है और शिक्षा के समान अधिकार के लिए लड़ रही है। परंतु मलाला में यह बेहिसाब हिम्मत कहां से आई और उसके इस संकल्प के पीछे कौन सी ताकत है? जवाब है मलाला की परवरिश और उसके पिता जियाऊद्दीन यूसुफजई की सकारात्मक महत्वकांक्षा। मलाला की अद्वितीय हिम्मत और आधुनिक सोच का श्रेय उसके पिता को जाता है और मलाला ने भी पिता के सपनों को आकार देकर अपने माता-पिता को गौरवान्वित किया।

समस्या-समाधान
आप स्वयं बढ़ते बच्चों से खुलकर बात नहीं कर पाते, अपनी समस्या बताने से कतराते हैं।
बच्चों के बड़े होने पर भी हम उन्हें कमतर आंकते हैं और उनके मानसिक विकास और क्षमता का सही से आंकलन नहीं कर पाते हैं। उन्हें परेशानी बताने से समाधान मिल सकता है और न भी मिले तो रिश्ते में मजबूती मिलेगी।

हर बच्चा मलाला हो
काश! हर बच्चा मलाला की तरह शिक्षा के सही उद्देश्य को समझकर निजी जरूरतों और हितों से ऊपर उठकर सामाजिक मुद्दों और ज्ञान की उत्पत्ति की दिशा में कदम बढ़ाए।

शिक्षा मानव अधिकार है जिसमें परिवर्तन और सृजन की असीम ताकत है। यह ऐसा आधार प्रदान करती है जिस पर आजादी, लोकतंत्र और मानवीय विकास के नींव के पत्थर स्थापित होते हैं।  
    -कोफी अन्नान

ऐसे माता-पिता जिनके मन में अपने बच्चों से संबंधित कोई सवाल या विचार हैं तो यहां बताएं।

हजारों प्रश्नों के हों लाखों संभावनाओं भरे जवाब

कीशू पांच साल का प्यारा सा बच्चा था। वह अपनी मां से दिनभर तरह-तरह के प्रश्न पूछता रहता था। कई बार उसकी मां को समझ नही आता था कि उसके प्रश्नों का क्या जवाब दे। एक दिन कीशू ने अपनी मां से पूछा कि उनके कुछ बाल सफेद क्यों हो रहे हैं। मां ने कहा कि उनकी उम्र  बढ़ रही है। कीशू उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। फिर पूछ बैठा कि उम्र तो उसकी भी बढ़ रही है।
अब मां ने पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया, जितनी बार बच्चा मां को तंग करता है हर बार उसकी मां का एक बाल सफेद हो जाता है। कीशू यह सुनकर तुरंत बोल पड़ा कि अब समझा दादा-दादी के सभी बाल सफेद क्यों हो गए। कीशू के प्रतिउत्तर से मां हैरान थी।
कहानी-2
सुधाकर अपनी बुद्धिमानी के लिए जाने जाते थे, इस वजह से कई लोग उनसे ईष्र्या करते थे। एक दिन उनका एक मित्र उनसे मिलने आया। मित्र बोला कि मुझे तुम्हें कुछ जरूरी बात कहनी है। सुधाकर किसी भी तरह की परनिंदा और फालतू बातों से दूर रहते थे। वह बोले की मुझे तुम ये बात बताओ इससे पहले मेरे तीन प्रश्न हैं। पहला- क्या यह बात सच है? मित्र बोला, नहीं मैंने किसी से सुनी है। फिर सुधाकर ने दूसरा प्रश्न किया- क्या यह बात मेरे बारे में है? मित्र ने कहा- नहीं। अब सुधाकर ने तीसरा प्रश्न किया- क्या इस बात से मुझे कोई लाभ होना है? मित्र बोला- शायद नहीं। अब सुधाकर बोले- अगर इस बात की सच्चाई का सुबूत नहीं, अगर ये मेरे लिए नहीं है और इसे जानकर मुझे कोई लाभ नहीं तो तुम ये मुझे मत बताओ।

इस तरह सुधाकर ने केवल प्रश्न पूछकर ही गैरजरूरी बात को रोक दिया। जवाब से ज्यादा महत्व प्रश्नों का होता है, क्योंकि जवाब तो प्रश्न पर निर्भर होता है। इसलिए प्रश्नों का स्वागत सहृदय करना चाहिए, उनसे बचने या टालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
कई सीख
हर अभिभावक इस परिस्थिति से गुजरता है जब बच्चों के अनगिनत सवाल होते हैं। हालांकि उनके सवाल कभी भी फिजूल नहीं होते हैं। उनके अजीब लगने वाले सवालों से शिक्षक और अभिभावक परेशान इसलिए होते हैं क्योंकि शायद उनके पास संतुष्ट करने वाले जवाब नहीं होते। बच्चों बहुत जिज्ञासु होते हैं। उनके नन्हे से मस्तिष्क में हजारों सवाल जन्म लेते हैं। जब वे इन सवालों के जवाब नहीं पाते तो जानकारी से अनभिज्ञ रह जाते हैं या फिर आगे प्रश्न करने से कतराने लगते हैं। कहीं-कहीं तो वे हीन महसूस करने लगते हैं।

कई बार शिक्षिका कक्षा में विषय समझाने के बाद प्रश्न पूछती है और बच्चों को सही जवाब देने के लिए कहा जाता है। बच्चों की दुविधा ये होती है कि पहले तो उनके अपने दिमाग में कई सवाल होते हैं, उस पर से सही जवाब की उम्मीद भी की जाती है तब बच्चा उत्तर आते हुए भी नहीं बोल पाता है कि कहीं जवाब गलत न हो जाए। सच्चाी शिक्षा में सही जवाब की शर्त नहीं होती बल्कि सही प्रश्न के लिए स्थान होना चाहिए। जब बच्चों को प्रश्न करने की आजादी होती है तब वे शिक्षा को ग्रहण कर पाते हैं और विषय का आधार मजबूत होता है। वैसे भी प्रश्न करना बच्चों की मानसिक उपस्थिति को दर्शाता है क्योंकि कक्षा में बच्चों की शारीरिक उपस्थिति के साथ-साथ मानसिक उपस्थिति भी अत्यंत आवश्यक है।

कुछ प्रश्न जो बच्चों आमतौर पर पूछते हैं
मैं आपकी शादी के वक्त कहां था? भगवान बच्चों को कहां बनाते हैं? ल्ल  बच्चों कैसे आते हैं? आसमान नीला क्यों है? नदियां कहां से आती हैं? कुछ बच्चों ये भी पूछते हैं-
सरकार कौन है? उसे कौन चलाता है  रुपये की कीमत कौन तय करता है?
अगर ऐसे सवाल बच्चों पूछते हैं और अभिभावकों को उत्तर नहीं पता या पता है पर बच्चों के उम्र के हिसाब से वे समझा नहीं पाते तब बच्चों के उम्र के हिसाब से उन्हें तर्क या उदाहरण देकर जवाब से संतुष्ट करें। जब वे पूछें कि वे कहां से आए हैं तो उन्हें पौधे का बीज बोकर पौधे के विकास के द्वारा जीवन की उत्पत्ति समझाएं।
प्रश्न पूछना जरूरी
प्रश्न पूछना जीवंत और ऊर्जावान मस्तिष्क की निशानी है जिसे किसी भी हालात में दबाना या हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। हजारों प्रश्न जन्म लेते हैं तब किसी नए विचार की उत्पत्ति होती है।

कोट
किसी भी व्यक्ति की बुद्धि की परख के लिए उसके द्वारा दिए गए उत्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं उसके द्वारा पूछे गए प्रश्न।
    -वोल्टाइन
जिज्ञासा मानव मस्तिष्क का सबसे प्रथम और सरल भाव है।
    -एडमुंड बुर्के

समस्या-समाधान
बच्चों के सवालों से परेशान होकर कई बार आप उन्हें बहलाते हुए कुछ भी जवाब दे देते हैं।
उन्हें सुने और समझों कि उनके प्रश्न का क्या कारण है। उन्हें गलत जवाब न दें उससे वे किसी उलटी दिशा में सोचने लगेंगे। असल जवाब अगर उनकी उम्र में न समझ आये तो उन्हें मिलता जुलता उदाहरण दे दें।

आपको उनके प्रश्न का सही जवाब नहीं पता।
अगर शिक्षक या अभिभावक के तौर पर आपको सही जवाब नहीं पता है तो उन्हें साफ-साफ बता दें कि आपको सुनिश्चित जवाब नहीं पता है। परंतु आप ध्यान से उन्हें बाद में पता करके उत्तर दे दें। इससे वे आपका सम्मान करेंगे। साथ ही उनकी प्रश्न पूछने की हिम्मत  और आत्मविश्वास बना रहेगा।
एक बार एक छोटा सा लड़का अपने पिता के साथ साइकिल पर बैठा गन्ना खाते हुए जा रहा था , रास्ते में उसे एक व्यक्ति ( महावत ) हाँथी पर बैठा आता हुआ दिखाई दिया ,
‪#‎बच्चा‬ अचानक बोला ' ऐ महावत ये गन्ना ले लो हाँथी दे दो '
उसके पिता ने उसको डांटते हुए कहा पागल है क्या कहीं कोई गन्ने के बदले हाँथी भी देता है , ?
बच्चा बड़ी मासूमियत से बोला पापा नहीं देगा ये पता है , लेकिन अगर कहीं दे दिया तो ....!!
कहने का तात्पर्य हमें कभी प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए सब कुछ संभव है कम से कम शुरू तो कीजिये मन में डिमांड तो लाएं एक इच्छाशक्ति तो पैदा करें ...... सब मिलेगा दोस्तों ...!! :|
आखिर बात करने से ही बात बनती है ....!!

Tuesday, April 22, 2014

भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार के बाद अपनी चुनावी सभा में जिस तरह यह कहा कि वह अपराधी नेताओं को संसद से बाहर करने के लिए हर संभव उपाय करेंगे उससे उनकी प्रतिबद्धता तो जाहिर होती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह इसमें सफल होंगे। अभी तो यही देखना शेष है कि उन्हें अपने इस वादे को पूरा करने का अवसर मिलेगा या नहीं, क्योंकि चुनाव नतीजे सामने आने शेष हैं। इसके बाद देखना यह होगा कि उनकी इस पहल में खुद भाजपा के सहयोगी दल और विरोधी दल सहयोग देते हैं या नहीं?

एक कहानी मर्मस्पर्शी और दिल की तहों को छुनें वाली.

कल मैंने भी इंटरनेट पर एक ऐसी ही कहानी पढ़ी जो सोचा आप सब के साथ सांझा की जाए तो लीजिए हाजिए है एक कहानी मर्मस्पर्शी और दिल की तहों को छुनें वाली.



एक दपंति का ग्यारह साल बाद लड़का हुआ. काफी मन्नतें और दुआओं के बाद हुआ यह लड़का उनके लिए काफी सौभाग्यशाली था. उन्होंने बच्चें को बहुत प्यार से पाला पोशा. जब बच्चा करीब दो वर्ष का हुआ तो उस दंपति के साथ कुछ ऐसा हुआ जिसने उनके जीवन को हिलाकर रख दिया.



एक सुबह जब पति ऑफिस के लिए जल्दी जल्दी में तैयार हो रहा था तो उसने देखा उसके बच्चें के हाथ में एक दवाई की शीशी थी. वह दवाई बहुत खतरनाक थी. लेकिन जल्दबाजी में पति ने पत्नी से कह दिया कि बच्चें से दवाई की शीशी लेकर रख दे.



उस समय उसकी पत्नी किचन में व्यस्त थी. उसने बच्चें को नजरअंदाज कर दिया लेकिन तभी बच्चें ने दवाई की शीशी और उसके रंग से आकर्षित होकर उसे पी लिया. वह दवाई बहुत ही जहरीली थी जिसका सेवन बहुत छोटी मात्रा में किया जा था था. जब पत्नी ने यह देखा तो वह सदमे में आ गई कि वह अब पति का किस तरह सामना करेगी. आननफानन में बच्चें को वह अस्पताल लेकर गई जहां बच्चें को मृत घोषित कर दिया गया.





महिला बुरी तरह सहम गई कि अब वह अपने पति का किस तरह सामना करेगी. लेकिन जब उसका पति हैरान परेशान होकर घर आया और अपने बच्चें को मरा हुआ पाया तो काफी देर अपनी पत्नी को बिना किसी भाव के देखता रहा.



काफी देर सोचने के बाद उसने चार शब्द बोलें. पता है यह चार शब्द क्या थे?



यह चार शब्द थे “आई लव यु डारलिंग.”



दरअसल पति को मालूम था कि उसका बच्चा तो अब मर चुका है जो वापस नहीं आ सकता और यह हादसा होता ही नहीं अगर वह खुद उस बोतल को हटा देता. तो पत्नी को दोष देना गलत है. और उसकी पत्नी ने अभी अभी अपने बच्चें को खोया है उस बच्चें को जिसको उसने पूरे नौ महीने अपने गर्भ में रखा था ऐसे में अपनी पत्नी पर गुस्सा करके वह पत्नी को खो देता इसलिए उसने अपने गुस्से पर काबू किया और शांत मन से अपनी पत्नी को प्यार से घर वापस ले आया.





नोट: गुस्सा इंसान का विवेक खत्म कर देता है पर अगर हम गुस्से के समय अपने विवेक का काम लें तो हानि होने से बचा जा सकता है.

Saturday, April 19, 2014

मुझे भी समाज, अडोस-पड़ोस से पता चल गया की ये मेरा घर है, यही मेरा मोहल्ला और यही मेरा समाज है। हमें इसी समाज मे  रहना है,पर जब मैंने असंतुलित समाज, गरीब-आमिर की खाई, भिखारी, भूख से बिलखते लोग, औरतो के शोषण को देखा तो मै  समझ गया की मै  पैदा होने पे क्यों रोया था।

ईश्वर का साक्षात्कार…..

जब मै पैदा हुआ था तो मुझे नहीं पता था कि मै किस धर्म से हू, इस दुनिया में कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर भी है , और न ही मेरे पैदा होते ही किसी ईश्वर ने मेरे बचपन के शुरुवाती वर्षो में आकर मुझसे अपना परिचय कराया था ! घर के लोग मंदिर जाते थे तो कौतुहल कि दृष्टि से मंदिर कि मूर्तियों को देखता था और माँ से पूछता था कि ये क्या है ये कौन है ? तो वो कहती थी बेटा भगवान है, तब जाकर कहीं मैंने ये जाना कि ये पत्थर कि मूर्ति भगवान है , पर अनिभिज्ञ था कि आखिर ये भगवान करत क्या है, सिर्फ हलवा पूरी और प्रसाद ही खाते है! तो फिर माँ से पूछा कि भगवान करते क्या है तो, उन्होंने एक सीधा-सपाट सा उत्तर दिया बेटा ये हमारी रक्षा करते है !
फिर सवाल रक्षा और किससे ? माँ बोली शैतान से !
अब ये शैतान कौन है , तो जवाब मिला वो जो इंसानों को खा जाता है !
अब डर लगा कि दुनिया में कोई ऐसा भी है जो इंसानों को खा जाता है तब तो भगवान को खुश रखना होगा कही वो शैतान मुझे ना खा ले !
अब जब भगवान को मानने लगा तो उसके मानने के तरीके ने मेरे धर्म का निर्धारण कर दिया ! मूर्ति उपासक हुआ तो हिंदू, नमाज पढ़ने वाला हुआ तो मुसलमान, बाइबिल पढ़ने वाला बना तो ईसाई !
तो कौन कहता है इंसान किसी धर्म में पैदा होता है ?
इंसान के मानने का तरीका उसे अमुक धर्म का बनाता है और किसी भी धर्म के ईश्वर ने खुद आकर अपना साक्षात्कार भी नहीं दिया कभी, जब भी ईश्वर से परिचय हुआ तो सांसारिक, भौतिक-क्षणभंगुर इंसानों के शब्दों के माध्यम से ही हुआ !
मन के विचलन में शाब्दिक मरहम और भावभंगिमा कितनी सफल औषधि का कार्य करते है, गर ये समझना हो तो जानवरों को ट्रेनिंग देने वालो को ही देख लीजिये, मनोचिकित्सकों को भी इस काम में महारथ हासिल है तभी तो वे अर्ध-विक्षिप्तो को भी अपनी मोहिनी शब्द जालो का मुरीद बना के उनका इलाज कर देते है फिर जो विक्षिप्त नहीं है उन्हें प्रभावित करना तो बेहद आसान है , ये ठीक उसी तरह है जैसे किसी शराब न पीने वाले इंसान को शराब की दो-तीन चुस्किया दे दी जाए..फिर तो उसके लिए दुनिया डोलने ही लगेगी…कुछ तो शराब का असर होगा और कुछ इस बात का असर होगा कि उसने शराब पी ली है…बात फिर भी मानने पर ही टिकी है मानो तो आपके घर के दरवाजे के पीछे, स्टोर रूप में पसरे अँधेरे , पीपल के पेड़ पर , रात के अँधेरे में डूबी बगिया में , यहाँ तक की रात के अँधेरे में आपके कमरे की छत पर लटके पंखे पर भी कोई भूत है जो रह रह कर आपको दिखाई भी देते है और परेशान भी करते है और न मानो तो ये सब दिखने ही बंद हो जाते है और साथ ही इनका डर भी…

Friday, April 18, 2014

व्यक्ति

दुनिया में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके बारे में लिख कर बताना बहुत कठिन होता है। अनिवार्य रूप से उनके चर्चे उनसे पहले आप तक पहुँचते हैं और जब उनके आधार पर आप एक व्यक्तित्त्व गढ़ चुके होते हैं तो किसी दिन अचानक वे साक्षात होते हैं और आप की सारी गढ़न एक क्षण में ध्वस्त हो जाती है। बात वहीं समाप्त नहीं होती, आप के लिये वे ज्यों ज्यों पुराने परिचित होते जाते हैं त्यों त्यों नये भी होते जाते हैं। अर्थ यह कि आप उनके बारे में कभी कुछ अंतिम सा नहीं सोच समझ पाते और एक दिन पता चलता है कि उन्हों ने अंतिम साँसें भी ले लीं। आप बाकी जीवन और परिचितों के साथ बैठ कर यह समझने की नासमझ कोशिश करते रहते हैं कि आदमी कैसा था!

क्या हम विकसित हो रहे देश के सभ्य नागरिक हैं

१.घर को साफ करके कूड़ा सड़क पर डालना अपनी शान समझते हैं. क्योंकि गली की सफाई की जिम्मेदारी नगर पालिका की है.
२.समारोह परिवार का हो या मोहल्ले का शामियाने लगाने के लिय सड़क तोडना या उसमे गड्ढे करना हमारा अधिकार है,क्योंकि सड़क हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही तो बनती है.
३.विशेष अवसरों पर रौशनी करने के लिय सीधे लाइन से बिजली तो लेनी ही पड़ती है.बिजली विभाग की लम्बी प्रक्रिया से गुजरने के लिय समय किसके पास है.फिर क्यों न लाइन मेन को पैसे देकर आसानी से कम चला लिया जाय.वैसे तो हम घर पर भी बिजली उपयोग के लाइन पर कटिया डाल कर काम चलाना कोई गलत नहीं मानते. आखिर देश हमारा है,बिजली विभाग हमारा है,तो बिजली भी हमारी ही हुई न?
४.यदि हमें विरोध प्रदर्शन करना है,धरना देना,अपनी आवाज सरकार तक पहुंचानी है सरकारी संपत्ति यानि पुब्लिक ट्रांसपोर्ट, और सरकारी इमारतें सबसे अच्छा निशाना हैं.हमारे बाप का क्या जाता है?
५.मोहल्ले में देवी का जागरण करना है, रामायण का पाठ करना है,कावड़ियों की सेवा करनी है या फिर बेटी का व्याह करना है,सड़क जाम करने से हमें कोई परहेज नहीं है.सडक पर दुकान लगाना,कहीं भी गाड़ी को खड़ी कर सड़क को संकरा कर देना हमारी फितरत है.
६.सड़क पर थूकना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है.क्या फर्क पड़ता है,सड़क तो गन्दी ही होती है,यदि थोड़े बहुत कत्थे के लाल निशान पड़ भी जाएँ तो क्या?हम आजाद देश के आजाद नागरिक हैं कहीं भी मूत्र विसर्जन करना हमारा अधिकार है,जब लिखा मिलता है ‘देखो गधा मूत रहा है’तो हमें बहुत बुरा लगता है.
७.बिजली की आवक न होने की स्तिथि में जेनेरटर चलाना हमारी मजबूरी है, उससे बीमार पडोसी को ध्वनी प्रदूषण अथवा वायु प्रदूषण दो चार होना पड़ता है तो क्या कर सकते हैं?
८.पानी की आवक नियमित नहीं होती अतः जब पानी आता है तो हम टोंटी बंद न कर नगर पालिका से बदला लेते हैं.अब ऐसी स्तिथि में सब मर्सिब्ल पम्प न लगवायं तो क्या पानी पीना छोड़ दें.
९अगर हम सम्रिध्शाली हैं और हमारे पास खाने पीने की कोई कमी नहीं है तो कुछ भोजन बचा देना ,फेंक देना हमारी शान का हिस्सा है.हमें इस बात से क्या मतलब की हमारे देश में आज भी करोड़ों लोगों को एक समय का भोजन ही उपलब्ध हो पाता है.
10.बिजली का बिल पूरी ईमानदारी से भरते हैं यदि हम अधिक बिजली उपभोग करते हैं तो कौन सा गुनाह करते हैं.देश बिजली की कमी है.तो हमारी क्या गलती है. .

क्या हम सभ्य समाज में जी रहे हैं…?

डार्विन के अनुसार जैविक विकास के विभिन्न चरणों में जीवन संघर्ष के फलस्वरुप सर्वाधिक सफ़ल जीवन व्यतीत करने वाले सदस्य योग्यतम होते हैं। इनकी सन्तान भी स्वस्थ होती हैं जिनसे इनका वंश चलता रहता है।संघर्ष में जो अधिक सक्षम होते हैं वही विजयी होकर योग्यतम सिद्ध होते हैं। इसे हम ‘जंगल का कानून’ या ‘मत्स्य न्याय’ के नाम से जानते हैं। यहाँ विवेक के बजाय पाशविक शक्ति का महत्व अधिक होता है।
जंगल से बाहर निकल कर हम एक कथित ‘सभ्य समाज’ का निर्माण कर चुके हैं और वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमें ईश्वर ने दो हाथ-दो पैर और भला बुरा सोचने के लिये एक स्वस्थ मस्तिष्क दे रखा है। मैं समझती थी कि डार्विन का सिद्धान्त तो सिर्फ़ जानवरों पर लागू होता है। लेकिन देख रही हूँ कि इन्सान रुपी जानवर की बात भी अलग नहीं है जो चन्द पैसों की लालच में या अपने किसी स्वार्थ में या कभी-कभी केवल खेल-मनोरंजन में अपनों का ही कत्ल कर बैठता है।
मन सोचता है कि क्या हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं?
मैं कभी कभी यह सोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि क्या सचमुच हमारे देश में भाईचारा है?...आखिर कौन सा उदाहरण हम अपने आने वाली पीढ़ी के सामने पेश करेंगे? आये दिन समाचार पत्रों, पत्र- पत्रिकाओं में पढ़ने और टीवी पर देखने को मिलता है कि आज एक भाई ने अपने भाई को गोली मारी।….कारण क्या है, कभी एक बीघा जमीन तो कभी रोटी।….अभी तक यह सारी बातें हम निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग में देखा-सुना करते थे। लेकिन अब तो यह सारी बाते उच्च वर्ग में भी देखने को मिलती हैं।
निम्न वर्गों में अभी भी शिक्षा की कमी, संस्कारहीनता और गरीबी-भुखमरी इसके कारण है। लेकिन… आखिर उन्हें क्या कमीं है जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी हमारी पीढ़ी को क्या सन्देश देते हैं। प्रवीण महाजन ने प्रमोद महाजन को गोली मारी… आखिर क्यों? इनके पास क्या कमी थी? क्या ये उच्च वर्गीय लोग हमारे आदर्श बन सकते हैं? संजय गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी भी अपने अनुज की पत्नी और बेटे को अपने साथ नही रख सके। क्या यह हमें भाईचारा सिखाता है…?
जो इन्सान एक परिवार नही चला सकता वह एक देश चलाने का ठेका कैसे ले सकता है?

स्त्री विरोधी नहीं हो सकते सभ्य समाज

पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.

इस खबर के बाद गलतियों और खामियों के सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिनकी अपनी ही प्रकृति और सीमा होगी. लेकिन फिर भी यह हत्या, जो न केवल निर्मम बल्कि बडे सधे तरीके से भी की हैं उस ओर सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाए? हादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द. शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह से विश्लेषित कर सकें. वस्तुतः देखें तो इस हादसे के सन्दर्भ में भाषा की सीमा भी साफ दिखती हैं क्योंकि सिर्फ हादसा कहने से ऐसे अपराधों की गंभीरता और वीभत्सता का मौलिक चरित्र ही खत्म हो जाता हैं.

अफ़सोस यह भी है कि ऐसे निर्मम अपराधों के बाद तमाम लोग ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सजा माँगने लगते हैं जैसे मृत्युदंड से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. पर मृत्युदंड ने दुनिया के किसी भी हिस्से में अपराध रोके हों इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता. एक दूसरे स्तर पर भी देखें तो समझ आता है कि अगर मौत की सजा इन दुष्कृत्यो को रोक सकती तो एक अपराधी को ऐसी सजा मिलने के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते. इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम ना तो इनकी गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही वीभत्सता. हाँ मौत की सजा देने से यह जरूर होगा कि बलात्कारी सबूत न छोड़ने के प्रयास में पीड़ित की हत्या करने पर उतर आयें.

जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम कैसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं? हम एक ऐसे समाज रह रहे हैं जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू हो जाती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा.

अफ़सोस यह भी है कि समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को " कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी से" विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौड़ा करते हैं  वे भी यह भूल जाते हैं कि महिलाओं को लेकर लगभग पूरा देश एक ही तरह का व्यवहार करता है. क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान क्या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति रवैया लगभग एक सरीखा और एक समान हैं. देश का कोई कोना दंभ से इसका दावा नही कर सकता हैं कि वह इन स्थितियों और परिस्थितियों से खुद को इतर रखे हुए हैं.  स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ बदलाव के चिन्ह दिखाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं. जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें. आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतंत्रता को अपने पैमानो से देखता हैं और आगे भी उसे नियंत्रित करने का प्रयास जारी हैं. इन कोशिशों में अपराधी और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियंत्रित करना चाहता हैं. इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं. राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई भी करती नजर आती हैं.

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं. आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं. इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं. ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं

सिकंदर का अंहकार

सिकंदर ने ईरान के राजा दारा को पराजित कर दिया और विश्वविजेता कहलाने लगाविजय के उपरांत उसने बहुत भव्य जुलूस निकालामीलों दूर तक उसके राज्य के निवासी उसके स्वागत में सर झुकाकर उसका अभिवादन करने के लिए खड़े हुए थे। सिकंदर की ओर देखने का साहस मात्र किसी में कहीं था। मार्ग के दूसरी ओर से सिकंदर ने कुछ फकीरों को सामने से आते हुए देखा। सिकंदर को लगा कि वे फ़कीर भी रूककर उसका अभिवादन करेंगे। लेकिन किसी भी फ़कीर ने तो सिकंदर की तरफ़ देखा तक नहीं।
अपनी ऐसी अवमानना से सिकंदर क्रोधित हो गया। उसने अपने सैनिकों से उन फकीरों को पकड़ कर लाने के लिए कहा। सिकंदर ने फकीरों से पूछा – “तुम लोग नहीं जानते कि मैं विश्वविजेता सिकंदर हूँ? मेरा अपमान करने का दुस्साहस तुमने कैसे किया?”
उन फकीरों में एक वृद्ध महात्मा भी था। वह बोला – “किस मिथ्या वैभव पर तुम इतना अभिमान कर रहे हो, सिकंदर? हमारे लिए तो तुम एक साधारण आदमी ही हो।”
यह सुनकर सिकंदर का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। महात्मा ने पुनः कहा – “तुम उस तृष्णा के वश में होकर यहाँ-वहां मारे-मारे फ़िर रहे हो जिसे हम वस्त्रों की तरह त्याग चुके हैं। जो अंहकार तुम्हारे सर पर सवार है वह हमारे चरणों का गुलाम है। हमारे गुलाम का भी गुलाम होकर तुम हमारी बराबरी की बात कैसे करते हो? हमारे आगे तुम्हारी कैसी प्रभुता?”
सिकंदर का अंहकार मोम की तरह पिघल गया। उस महात्मा के बोल उसे शूल की तरह चुभ गए। उसे अपनी तुच्छता का बोध हो गया। उन फकीरों की प्रभुता के आगे उसका समस्त वैभव फीका था। उसने उन सभी को आदर सहित रिहा कर दिया।

नेत्र दान

एक लडकी जन्म से नेत्रहीन थी और इस कारण वह स्वयं से नफरत करती थी। वह किसी को भी पसंद नहीं करती थी, सिवाय एक लड़के के जो उसका दोस्त था। वह उससे बहुत प्यार करता था और उसकी हर तरह से देखभाल करता था। एक दिन लड़की ने लड़के से कहा – “यदि मैं कभी यह दुनिया देखने लायक हुई तो मैं तुमसे शादी कर लूंगी”।
eyesएक दिन किसी ने उस लड़की को अपने नेत्र दान कर दिए। जब लड़की की आंखों से पट्टियाँ उतारी गयीं तो वह सब कुछ देख सकती थी। उसने लड़के को भी देखा।
लड़के ने उससे पूछा – “अब तुम सब कुछ देख सकती हो, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” लड़की को यह देखकर सदमा पहुँचा की लड़का अँधा था। लड़की को इस बात की उम्मीद नहीं थी। उसने सोचा कि उसे ज़िन्दगी भर एक अंधे लड़के के साथ रहना पड़ेगा, और उसने शादी करने से इंकार कर दिया।
लड़का अपनी आँखों में आंसू लिए वहां से चला गया। कुछ दिन बाद उसने लड़की को एक पत्र लिखा:
“मेरी प्यारी, अपनी आँखों को बहुत संभाल कर रखना, क्योंकि वे मेरी ऑंखें हैं”।
“जो मैं अब जानता हूँ अगर वो तब जानता होता तो मैंने इसे कितने अलग ढंग से किया होता।” कई छोटे व्यवसायी ये बात कहते हुए पाए जाते हैं। इसलिए व्यवसाय की शुरुआत से पहले इन 7 चीजों पर ग़ौर कीजिए।
वो बेचें जो ग्राहक को चाहिए
उन चीजों पर ज़्यादा ध्यान ना दें जो सिर्फ आप चाहते हैं। ग्राहकों के बारे में सोचें, तब आप अपने उत्पाद (प्रोडक्ट) बेच पाएंगे। आप बाज़ार की पूरी रिसर्च (खोज) करें और फिर ऐसे प्रोडक्ट तैयार करें, जिनकी मांग हो।
बिज़नेस/व्यवसाय की योजना लिखें
अपने व्यवसाय की योजना को लिखकर आप निवेशकों (investers) या कर्ज़ देने वालों को लुभा सकते हैं। एक अच्छी बिज़नेस योजना आपकी दूर तक देखने की क्षमता और लक्ष्यों का रिकॉर्ड रखता है। अपनी बिज़नेस योजना हमेशा लिखें।
अपनी ताकत को पहचानें
सोचिए कि आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। । आप सारे सवालों के जवाब नहीं खोज सकते। आप सारे काम खुद नहीं कर सकते और ना ही आपको ऐसा करना चाहिए। अच्छा ये है कि आप जिस काम को नहीं जानते उसमें मदद लें।
रिसर्च करें 
व्यवसाय शुरु करने से पहले बिजनेस क्लास, सेमिनार, किताबें और टेप के जरिए जानकारी हासिल करें। यदि आप बिज़नेस या व्यवसाय चलाने के बारे में कुछ नहीं जानते तो कई जगह फ्री में या कम क़ीमत पर क्लास लगती हैं, किताबें और टेप्स उपलब्ध हैं। लोकल लाइब्रेरी में जाएं। आपने बाज़ार, अपनी प्रतियोगिता, संभावित ग्राहकों के बारे में जानने की कोशिश करें।
अपनी सुविधाओं के साथ चलें
आपको अपने बज़ट पर खासा ध्यान देने की जरुरत है और अंत में सारे कर्ज़ चुकाकर बिज़नेस बढ़ाने की जरुरत है। यदि आप इन बातों को समझ नहीं पा रहे, तो अभी से सोचना शुरु कर दें।
बाज़ार की एक योजना बनाएं
एक योजना तैयार करें कि कैसे आप अपनी सेवाओं या अपने प्रोडक्ट्स (उत्पाद) के लिए नए ग्राहक बनाएंगे और कैसे वे आपके पास बार बार आते रहेंगे।
आप सभी चीज खुद नहीं कर सकते
छोटी-छोटी चीजों में मदद के लिए आप जितने ज़्यादा लोग रखते हैं, उतना ही ज़्यादा वक्त अपने व्यवसाय को बढ़ाने में दे सकते हैं।

तनाव प्रबंधन के तरीके

किसी कर्मचारी का तनाव उसकी सेहत, कार्यक्षमता और व्यवहार पर बुरा असर डालता है। इसीलिए संगठन या व्यक्तिगत स्तर पर तनाव का सही प्रबंधन ज़रूरी है। 
संगठन स्तर पर तनाव प्रबंधन
  • संस्था में आपसी संपर्क को बढावा मिले जिससे व्यर्थ तनाव पैदा ना हो।
  • मैनेजर ऐसे संकेत और भाषा का इस्तेमाल करें, जिसे कर्मचारियों गलत ना समझें।
  • फैसलों में कर्मचारियों की भागीदारी बढ़े।
  • कर्मचारियों को ज़्यादा आज़ादी और ज़िम्मेदारी मिले।
  • कर्मचारियों को सही और वक्त पर फीडबैक मिले।
  • कर्मचारियों को ऐसे लक्ष्य मिलें, जो वे पूरे कर सकें।
  • विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा मिले।
  • वेतन और इन्सेन्टिव का सही बंटवारा हो।
  • कार्यस्थल का माहौल सुरक्षित हो।
  • लक्ष्य प्राप्त करने वाले कर्मचारियों का हौंसला बढ़ाना चाहिए।
  • कार्य में बदलाव और समृद्धि को बढ़ावा मिलना चाहिए। 
  • सही कार्य और विभाग के लिए सही कर्मचारियों की भर्ती हो।
कर्मचारी स्तर पर तनाव प्रबंधन
  • प्राथमिकता के अनुसार लिस्ट बनाकर कार्य करें। बीच में आराम के लिए ब्रेक लें।
  • मेहनत करें, लेकिन अपने स्वास्थ्य और परिवार की कीमत पर नहीं।
अच्छे स्वास्थ्य की जीवन शैली अपनाएं। सेहतमंद खाना खाएं। नींद पूरी करें, खूब पानी पियें, और राहत पाने के लिए योग, संगीत या ध्यान लगाएं।

फिट रहने के लिए व्यायाम करें, ताकि काम के दबाव से दिमाग हटे। आप टेनिस बैंडमिंटन या कोई और खेल भी खेल सकते हैं।

आशावादी रहें। निगेटिव सोच वाले कर्मचारियों से दूरी बनाएं।  

कार्यस्थल पर खुद को सचेत रखें। आत्मविश्वास और खुद पर नियंत्रण रखें। 

सहकर्मियों से अच्छे संबंध बनाएं, जिससे ज़रूरत पढ़ने पर मदद मिल सके।

काऊंसलर से मिलें, ताकि आपको अपनी ताकत और कमजोरियां पता चलें। काऊंसलिंग आपके करियर के लिए भी फायदेमंद हो सकती है।

लोगों से मिलें। खुद में सीमित ना रहें। दूसरों की मदद करें, इससे भी तनाव कम होता है।

स्ट्रेस मैनेजमेंट

आज के दौर में कई संस्थानों के लिए उनके कर्मचारियों का स्ट्रेस मैनेजमेंट (तनाव का प्रबंधन) आम समस्या बन गई है। तनाव (स्ट्रेस) किसी व्यक्ति पर डाले गए अनुचित, अनचाहा और बहुत अधिक दबाव की प्रतिक्रिया है।
कुछ मामलों में तनाव के अच्छे परिणाम भी सामने आते हैं, जैसे एक समयसीमा के अंदर काम करने का तनाव किसी कर्मचारी से वक्त पर काम करवा लेता है। कई बार तनाव में कर्मचारी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी कर डालता है, वो काम करने के नये नये और चतुराई भरे तरीके सीख लेता है। ये तनाव का अच्छा पहलू है, जिसे एनस्ट्रेस कहते हैं। 
लेकिन ज़्यादातर मामलों में तनाव के खराब नतीजे ही सामने आते हैं, जिन्हें डी-स्ट्रेस कहा जाता है।
तनाव के लक्षण
  • पेशियों में तनाव और सिरदर्द
  • सोने में दिक्कत
  • किसी एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित ना कर पाना
  • चिड़चिड़ापन और डिप्रेशन महसूस करना
  • कार्य में दिलचस्पी ना होना
  • थकावट महसूस करना
  • बहुत ज़्यादा खाना या फिर कुछ नहीं खाना
  • फिज़ूल में बहस करना
  • याददाश्त कमज़ोर होना
  • कार्य की ज़िम्मेदारियों से भागना
  • ज़रूरत से ज़्यादा शराब और सिगरेट पीना
  • समाज से दूरी बनाना

टाइम मैनेजमेंट

टाइम मैनेजमेंट’ यानी ‘समय के प्रबंधन’ का मतलब होता है, अपने वक्त को, कार्य के महत्व और उसकी प्राथमिकता देखते हुए इस्तेमाल करना। आसान सी भाषा में कहा जाए तो - किसी काम को तय वक्त में सही ढंग से करना - टाइम मैनेजमेंट है। 
हर इंस्टीट्यूशन या संस्थान में कर्मचारियों को एक तय समयसीमा (डेडलाइन) के भीतर कार्य पूरा करना होता है, इसीलिए वक्त की कीमत समझना और उसका सही इस्तेमाल करना ज़रूर सीखना चाहिए।
समय का सही प्रबंधन कैसे करें?
हमेशा अपने साथ एक डायरी रखें- इस डायरी में आप अपने हर काम के लिए तय तारीख और समय को लिखें और उस पर अमल रखें। ये रिकॉर्ड बाद में आपको बताएगा कि कहां आपने ज़रूरत से ज़्यादा वक्त खर्च किया और कहां ये वक्त बच सकता था।
हर रोज़ की योजना बनाएं- अपने हर रोज़ के कार्यों की पहले से लिस्ट बना लें। लिस्ट में उस काम का क्रम तय करें। इससे आप ज़्यादा से ज़्यादा काम कर पाएंगे और एन वक्त पर भ्रम की स्थिति और भागदौड़ से बचेंगे।
प्राथमिकता के अनुसार कार्य करें- कोई कार्य कितना ज़रूरी है, इस आधार पर उसकी प्राथमिकता तय करें, और लिस्ट में उसका क्रम तय करें। कम उपयोगी समय बर्बाद कर सकते हैं, और वही वक्त और उर्जा ज़रूरी कार्य में लगाया जा सकता है।
ना बोलना सीखें- किसी भी दूसरे कार्य के लिए ‘हां’ बोलने से पहले आप अपने अपने तय लक्ष्य और योजना पर गौर कर लें। वर्ना आपको वो कार्य करना होगा, जो आप चाहते नहीं हैं।
कार्य बांटे- कई कार्य आप अपने अधीन कर्मचारियों से करवा सकते हैं, ताकि आपका समय बचे। बड़े कार्यों को छोटे - छोटे कार्यों में बांटे, जिससे कार्य को सुविधाजनक और आसानी से अंजाम दिया जा सकता है।
विचलित होने से बचें- कोई ज़रूरी या बड़ा कार्य करते वक्त एकांत में बैठें और फोन बंद कर दें।
सहकर्मियों से सलाह लें- किसी समस्या पर लंबे वक्त तक समय व्यर्थ करने के बजाय अपने सहकर्मियों से सलाह लें।
अच्छा खाना खाएं, पूरी नींद लें और एक्सरसाइज़ करें- इससे आपकी कार्यक्षमता बढ़ेगी, आप एकाग्रता से कम वक्त में बेहतर कार्य करेंगे। 

समय और तनाव का प्रबंधन

जैसे ही आपका काम बढ़ता है तो हमारी सबसे महत्वपूर्ण पूंजी होती है..समय। किसी भी नौकरीपेशा इंसान या व्यवसायी के लिए सबसे कठिन बात होती है हर काम के लिए समय निकालना।
आपकी पर्सनल और प्रोफेशनल लाईफ में बेहतर संतुलन बेहद ज़रूरी है। ध्यान से सोचिए कि कहीं आप अपनी निजी ज़िंदगी की कीमत पर काम तो नहीं कर रहे। निजी ज़िंदगी को सही वक्त ना देने पर दोस्तों और परिवार से दूरियां बढ़ सकती हैं।
आपको खुद के लिए भी समय देना पड़ेगा ताकि आप तनाव में न रहें। ज़्यादातर यही होता है कि लोग अपना ख्याल नहीं रख पाते और स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। इसी मोड़ पर आपको सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी है समय और तनाव के प्रबंधन की।
तो कैसे आप अपने वक्त का बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करें, तनाव को अपनी ज़िंदगी से अलविदा कहें

नौकरी पर क्या करें, क्या ना करें

समय पर पहुंचे: यदि आप कुछ मिनट देर से पहुंचने वाले हों तो पहले बॉस को फोन करके सूचना दे दें।
ग्राहकों के सामने अपना धीरज ना खोएं: आप ग्राहकों के साथ बहस में अपना धीरज ना खोएं। यदि आपको गुस्सा आए तो कुछ समय के लिए शांत हो जाएं, दस तक गिनती गिनें और कुछ भी कहने से पहले पूरी तरह शांति की हालत में आ जाएं।
अपने बॉस और सहपाठियों के साथ बहस न करें: यदि वे ग़लत हैं और आप सही हैं फिर भी बहस से बचे क्योंकि इससे आपको कोई मदद नहीं मिलेगी।
पॉज़िटिव (सकारात्मक) रवैया अपनाएं:  बुरा बर्ताव करने वाले व्यक्ति के साथ कौन काम करना चाहेगा। आप अपनी निजी समस्या अपने घर तक रखें। जब आप काम पर हों तो पॉज़िटिव (सकारात्मक) बने रहें।
सवाल करें: नौकरी पर अपने काम को अच्छी तरह से समझ लें। जिस काम में शंका या संदेह हो, उसके बारे में अपने बॉस या सहपाठियों से तुरंत पूछें और उनके मार्गदर्शन पर अमल करें।

नैतिकता

कार्यस्थल पर अच्छा नैतिक आचरण अपनाए जाए, तो  कर्मचारियों के बीच स्वस्थ्य, ईमानदार, सम्मान भरे रिश्ते कायम हो सकते हैं। कर्मचारियों के बीच बेहतर सहयोग, विश्वास और मेलजोल स्थापित हो सकता है और वो कर्तव्यनिष्ठ बन सकते हैं। 
कार्यस्थल पर नैतिकता के तहत वो सिद्धांत आते हैं, जो नैतिक नियमों, आचरण और मूल्यों की रूपरेखा तय करते हैं। किसी संगठन में कई पृष्ठभूमियों से लोग आते हैं, जिनकी अलग अलग विशेषताएं होती हैं। सबके अलग अलग व्यवहार और विचार मिलकर चाहे तो कार्यस्थल पर नैतिक आचरण को कमज़ोर कर दें, या फिर मजबूत कर डालें, इसीलिए ज़रूरी है कि हर कर्मचारी अच्छे नैतिक आचरण को समझे और इसे कार्यस्थल पर लागू करे। 
लेकिन इससे पहले ये ज़रूरी है कि संगठन के उच्च अधिकारी खुद नैतिक आचरण का पालन करें, ताकि कर्मचारियों के सामने आदर्श स्थापित हो सके। बेहतर नैतिक आचरण किसी कर्मचारी को अच्छे कर्मचारियों की सूची में शामिल होने में मदद करता है।

Thursday, April 17, 2014

mummy

 My mommy was my whole life. It was an honor & a privilege to take care of her. I love her & miss her more than anything in the world. I don't know how to live life without her. I'm so lost & lonely. I just keep praying to God to help get me through each day. The pain that I feel inside hurts so much. I talk to her all the time, I pray that she is with me in spirit & that she is watching over me.


It's been 4 weeks and its still so hard, I find myself crying all the time. I didn't realize how much I really needed her in my life till she was gone. we were really close, she was my best friend but pulled away a few months before and didn't understand why. I'm 30 yrs old and still need her so bad. I just don't know what to do. I'm waiting for this pain to ease but don't know that it ever will.

 

death

Death took away my mom’s physical presence, but it cannot take away her place in the hearts of those who will always love her.
Death keeps new memories of my mom from coming to life, but it will never take away the memories of all the precious moments we shared.
Death is the finality of life on this earth. The ones left behind grieve for the loss. We moved forward. Give away our loved ones clothes. Take down pictures. Remove things that symbolize the person who is gone. But it is not the physical knick knacks that hold true memories. Those special moments live in the heart and mind as feelings and pictures of the past. They will live on in the stories I tell my children, and those I keep close to my heart. Ingrained as a piece of me.
I will never stop loving you, Mom. I will never stop thinking of you or forget all that you did for me and all that we shared. I promise that you will never be forgotten by the family who loves you. Always.

i miss u mom

I miss her so much. Losing her to  was the most difficult thing I've ever experienced in my life. Unfortunately, she didn't get the opportunity to meet my 3 boys....she's watching over us though. Mom, thanks for giving me your patience, being my one & only true friend and a wonderful MOM. I hope I'm making you proud

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I miss your voice that used to softly sing my special lullaby.
I miss your hands that used to hold me when I was scared.
I miss your eyes that would bring me to ease each time I stared into them.
I miss your nicknames you gave me when I would act bad.
I miss you falling asleep to your heartbeat when I would lay my head upon your chest.
I miss the prayers we taught me when we prayed together.
I miss our talks on the car ride over to school.
I miss the "I love you's" & "Be careful's" everyday.
I miss the "Good Morning" & "Good night's".
I miss our tickle fights.
I miss our arguments knowing you were always right.
I miss you........the way you once were.

ऐसी महिलाएं हैं जो पूरी दुनिया को बदलने का दम रखती हैं

आज की नारी चाहे दफ्तर में रिवाल्विंग चेयर पर बैठ सारी दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचा रही हो या फिर घर-गृहस्थी संभाल रही हो, उसे अपनी पहचान बनाने और खुद को साबित करने के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। 

एक तरफ तो ऐसी महिलाएं हैं जो पूरी दुनिया को बदलने का दम रखती हैं और दूसरी ओर ऐसी महिलाएं भी हैं जो शिक्षित होने के बावजूद घर संभालती हैं, लेकिन उन्हें भी निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि घर संभालना भी एक बड़ा काम है। घर-परिवार में बच्चों को सही शिक्षा देकर उन्हें अच्छा नागरिक बनाने में भी महिलाओं का ही हाथ है। घरेलू महिलाएं भी अपने खाली समय का सदुपयोग कर सकती हैं।

संस्कारों की नींव से संवरेगा बच्चों का भविष्य
आए दिन गैंगरैप जैसी घटनाएं और मासूम बच्चियों के साथ घिनौने अपराधों ने आज के पेरैंट्स को लड़कियों की सुरक्षा को लेकर ङ्क्षचता में डाल दिया है। उनकी यह चिंता जायज भी है क्योंकि महिला व बाल विकास मंत्रालय की ओर से मिली रिपोर्ट के मुताबिक 50 प्रतिशत से अधिक बच्चयां यौन शोषण का शिकार होती हैं। संस्कार आधारित शिक्षा ही ऐसी घटनाओं को रोकने का एकमात्र साधन है। संस्कार शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनने ही चाहिएं। स्कूल व कॉलेज लैवल पर इसकी शुरूआत होनी चाहिए।

चुनौतियों को जिंदगी के हर मोड़ पर स्वीकार करें

जिंदगी कांटों से भरी पड़ी है, कांटों को चुन कर ही हम अपने लिए आसान रास्ते बना सकते हैं। महिलाओं को संदेश देते हुए वह कहती हैं कि चुनौतियां जो भी हों उनसे डरो नहीं, उन्हें स्वीकार करो और हर चुनौती का डट कर मुकाबला करो।