Friday, April 18, 2014

स्त्री विरोधी नहीं हो सकते सभ्य समाज

पिछले कई दिनों से देश भर में,समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपराधों के घिनौने रूप पर एक चर्चा और विमर्श का माहौल हैं. अफ़सोस यह कि यह माहौल किसी आत्मचेतना के चलते नहीं बल्कि एक निर्मम बलात्कार और हत्या से उभरे जनाक्रोश के चलते बना है. इस घटना के लगभग दो महीने के बाद भी न समाज शर्मिन्दगी से उबार पाया है न उसी समाज के एक हिस्से के लोग दरिंदगी से और हमारा हासिल वह समाज है जिसमें एक महिला अपनी प्राकृतिक जीवन यात्रा इसलिए पूरी नहीं कर सकती क्योंकि समाज नहीं चाहता था कि वह इस तरह सें जिएं.

इस खबर के बाद गलतियों और खामियों के सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिनकी अपनी ही प्रकृति और सीमा होगी. लेकिन फिर भी यह हत्या, जो न केवल निर्मम बल्कि बडे सधे तरीके से भी की हैं उस ओर सोचना जरूरी हैं कि क्या सच में हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं? क्या सच में हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? इस मौत को क्या कहा जाए? हादसा, अपराध, दुर्घटना या कोई और शब्द. शायद किसी भी शब्द में इतनी ताकत हो जो  इसे पूरी तरह से विश्लेषित कर सकें. वस्तुतः देखें तो इस हादसे के सन्दर्भ में भाषा की सीमा भी साफ दिखती हैं क्योंकि सिर्फ हादसा कहने से ऐसे अपराधों की गंभीरता और वीभत्सता का मौलिक चरित्र ही खत्म हो जाता हैं.

अफ़सोस यह भी है कि ऐसे निर्मम अपराधों के बाद तमाम लोग ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सजा माँगने लगते हैं जैसे मृत्युदंड से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. पर मृत्युदंड ने दुनिया के किसी भी हिस्से में अपराध रोके हों इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता. एक दूसरे स्तर पर भी देखें तो समझ आता है कि अगर मौत की सजा इन दुष्कृत्यो को रोक सकती तो एक अपराधी को ऐसी सजा मिलने के बाद अपराधी और समाज दोनो ही इसकी पुनरावृत्ति नहीं करते. इन हादसों की पुनरावृत्ति हमें यह बतलाती हैं कि अब भी हम ना तो इनकी गंभीरता समझ पाए हैं और ना ही वीभत्सता. हाँ मौत की सजा देने से यह जरूर होगा कि बलात्कारी सबूत न छोड़ने के प्रयास में पीड़ित की हत्या करने पर उतर आयें.

जो भी हो पर इस हादसे ने हमें एक बार खुद की ओर सोचने के लिए झकझोरा हैं कि हम कैसे सामाजिक औऱ राजनैतिक ढाचें में जी रहे हैं? हम एक ऐसे समाज रह रहे हैं जिसमे  आधी दुनिया की भागीदार स्त्री के मूलभूत अधिकारों को  हम सभ्यता के हजारों साल आगे आने के बाद भी बर्बर तरीके से कुचलता जाता रहा है.  हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसमे महिलाओं के प्रति इस बर्बरता को जिंदा रखनें के लिए चरणबद्ध तरीको से जाल बुने जाते हैं और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की फेहरिश्त उनके परिवारों से ही शुरू हो जाती है. भ्रूण हत्या, परिवार के अन्दर यौन हिंसा, दहेज़, दहेज़ हत्या, ध्यान से देखें तो यह सब स्त्रियों के विरुद्ध उनके द्वारा किये जाने वाले अपराध हैं जो अन्यथा उनके बचाव के लिए जिम्मेदार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हम जिस देश में रह रहें हैं उसमें इन अपराधों को सामाजिक और राजनैतिक मान्यता की अदृश्य शक्ति मिली हुई हैं. हम और आप इन्हे पहचानते और जानते भी हैं औऱ कई बार इनके हिस्से भी होते हैं पर बदलते नहीं हैं. हमें इनसे दिक्कत सिर्फ तब होती है जब यह हमारे अपनों के साथ हों. हाँ, ऐसे अपराधों के बाद आने वाली प्रतिक्रियायों पर नजर डालने से इन अपराधों को मौन स्वीकृति दिलाने वाले चेहरे भी साफ़ नजर आने लगते हैं. दिल्ली के इस मामले के बाद समाज और सार्वजनिक मंचो से बयान उसकी बानगी हैं। और इसी लिए यह पूछना जरूरी बनता है कि ऑनरकिलिंग को भावनात्मक और सामाजिकता से जुड़ा मुद्दा माननें वाले औऱ चुपचाप भ्रूण हत्या को बढावा देने वाले समाज से, इस हत्या पर ईमानदारी भरी प्रतिक्रिया औऱ बदलाव की उम्मीद करना कहां तक समझदारी भरा कदम होगा.

अफ़सोस यह भी है कि समाज संस्कृति के उद्घोषक जो इस देश को " कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी से" विविधता भरी संस्कृति का वर्णन कर अपना सीना चौड़ा करते हैं  वे भी यह भूल जाते हैं कि महिलाओं को लेकर लगभग पूरा देश एक ही तरह का व्यवहार करता है. क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या राजस्थान क्या बंगाल, क्या शिक्षित क्या अशिक्षित, महिलाओं के प्रति अपराध और उनके अधिकारों के प्रति रवैया लगभग एक सरीखा और एक समान हैं. देश का कोई कोना दंभ से इसका दावा नही कर सकता हैं कि वह इन स्थितियों और परिस्थितियों से खुद को इतर रखे हुए हैं.  स्पष्ट हैं कि महिलाओं के प्रति नजरिये को लेकर आजतक हमारा समाज जहां था वहीं हैं और अगर कुछ बदलाव के चिन्ह दिखाई भी पडे हैं तो उन्हे कुचलनें के लिए समाज ने अपराधियों को हमेशा बढ़ावा दिया हैं. जिससे उनकी नैतिकता और सभ्यता की खोखली पाठशाला का पाठ महिलाएं आसानी से समझ लें. आज भी समाज, नारी देह और उसकी स्वतंत्रता को अपने पैमानो से देखता हैं और आगे भी उसे नियंत्रित करने का प्रयास जारी हैं. इन कोशिशों में अपराधी और अपराध को मौन सहमति देकर आगे भी नियंत्रित करना चाहता हैं. इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का कोई भी परिवर्तन, आज भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही कुचला जाता हैं. राजनैतिक और सामाजिक संस्थाए इनको न केवल बढ़ावा देती हैं वरन कई बार अगुवाई भी करती नजर आती हैं.

निश्चित ही कोई भी समाज या व्यवस्था आदर्श नहीं होती हैं, अच्छे और बुरे गुण सभी सामाजिक व्यवस्था के हिस्से होते हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उससे इतर नहीं हैं, लेकिन फिर भी  महिलाओं के प्रति समाजीकरण की वह व्यवस्था जिसमें उनके प्रति किए गए अपराध जो कि सामाजिक अपराध हैं और समाज का हिस्सा रहे है. इनका इतिहास बर्बर काल सें हैं और आज भी अनवरत जारी हैं. आज भी हम ऐसे ही समाज को पाल पोस रहे हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूर्णतया असंवेदनशील हैं. इस कदर की असंवेदनशीलता और अपराध को बढावा देना किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होता हैं. ऐसे में हमारा दावा कितना खोखला हैं कि हम एक सभ्य समाज में हैं और हमारे द्वारा एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा रहा हैं

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