कॉलेज के कुछ विद्यार्थी जीवन की प्राथमिकताओं पर चर्चा कर रहे थे। सभी
ने कुछ ना कुछ कहा पर उन्हें स्पष्ट सुझाव नहीं मिल रहे थे। सभी शिक्षक के
पास गए। उन्होंने शिक्षक से कहा कि वो अक्सर प्राथमिकताएं तय करने में गलती
कर जाते हैं। इससे गलत दिशा में प्रयत्न करने लगते हैं। शिक्षक उन्हें
कक्षा में ले गए। उन्हें एक कांच का जार, कुछ पत्थर और अन्य सामग्री लाने
को कहा। शिक्षक जार में पत्थर डालते गए।
जब एक भी और पत्थर डालने की जगह नहीं बची तो शिक्षक ने पूछा कि क्या जार भर गया? सभी ने हामी भर दी। शिक्षक ने कुछ कंचे जार में डाले। जार हिलाते ही कंचे पत्थरों के बीच की खाली जगह में भर गए। शिक्षक ने पूछा कि क्या अब जार पूरा भर गया है, सभी ने तुरंत स्वीकारा। अब शिक्षक ने कुछ रेत ली और जार में डाली। थोड़ा ही हिलाने पर रेत ने बची हुई खाली जगह भर ली। शिक्षक ने अब विद्यार्थियों से कहा कि अगर इस जार में सबसे पहले मैं रेत डाल देता तो एक भी कंचे और पत्थर के लिए जगह न बचती।
अगर इस जार को जीवन की तरह समझा जाए तो उसमें भरने वाल सारी चीजों की प्राथमिकता कुछ इस तरह हो। हमारा परिवार, रिश्तेदार, शिक्षा और स्वास्थ्य उन पत्थरों की तरह हो जिसे सबसे पहले जार में डालना है। हमारी नौकरी, व्यवसाय और इससे जुड़े लोग कंचों की तरह हों जिनकी प्राथमिकता दूसरे नंबर पर हो। इसी तरह सारी विलासिता, कपड़े, गहने और बाकी की भौतिक वस्तुएं रेत की तरह हों जिनका स्थान तीसरे नंबर पर हो।
कई सीख
व्यक्तिगत तौर पर और अभिभावक के रूप में हमें दुविधा रहती है कि कौन सा डॉक्टर अच्छा है? बच्चों के लिए कौन स्कूल सही रहेगा? बच्चों के लिए कौन सा खेल उचित होगा? कई बार तो दुविधा में जैसा दूसरे कर रहे हैं, उन्हीं की देखा-देखी निर्णय लिए जाते हैं। बेहतर शिक्षा हो या चिकित्सा से संबंधित सेवा या फिर किसी अन्य क्षेत्र में चुनाव हमें स्वयं की कुछ प्राथमिकताएं निर्धारित करनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र से संबंधित विशिष्ट चीजों के साथ समझौता ना करना पड़े। अब जब बात शिक्षा और स्कूल के चयन की आती है तो अमूमन अभिभावकों की प्राथमिकता बड़ी विचित्र और अस्पष्ट रहती है। उन्हें लगता है कि स्कूल नामी हो, इमारत बड़ी हो। आजकल स्कूल एक ‘स्टेटस सिंबल’ की तरह हो गया है। यहां प्राथमिकता कुछ इस तरह हो कि स्कूल किन नैतिक मूल्यों एवं धारणाओं के आधार पर बनता है। वहां के शिक्षक अच्छे इंसान हों और मधुरभाषी, उदार और संयमी हों जिनके पास विषय के ज्ञान केअलावा नैतिक और मानवीय मूल्यों का खजाना हो।
फिर आती है अन्य सुविधाओं, कक्षा, मैदान और आधुनिक उपकरणों की बारी और शिक्षण पर लगने वाला शुल्क। फिर आता है खाने और आने-जाने की सुविधा का नंबर। यहां सुविधाओं पर ध्यान देना जरूरी है परंतु इनमें समझौता किया जा सकता है लेकिन प्राथमिकता के हिसाब से सीखने की प्रक्रिया और शिक्षा से समझौता नहीं होना चाहिए।
हर क्षेत्र में हमें तय करना होगा कि कौन सी चीज ‘पत्थर’ होगी और कौन सी ‘कंचे’ और कौन सी ‘रेत’ होगी। इसके अलावा अभिभावकों की दुविधा यह भी होती है कि स्कूल कब हो? यानि उन्हें औपचारिक शिक्षा किस उम्र से दी जाए? कई अभिभावक दो-तीन महीने के अंतर को भूलकर जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि बच्चों की उम्र मानक के हिसाब से हो। जहां बच्चों को नर्सरी (प्रथम कक्षा) में ढाई से साढ़े तीन साल में जाना चाहिए। वहीं कई माता-पिता दो या सवा दो साल मे भी भर्ती करा देते हैं। इस वजह से कक्षा के बच्चों की उम्र का अंतर डेढ़ साल तक हो जाता है और छोटी उम्र वाले बच्चों की तुलना उसी की कक्षा के बड़ी उम्र के बच्चों से की जाने लगती है। बच्चों को लगता है कि उनमें कुछ कमी है। इस तरह छोटे बच्चों पिछड़ जाते हैं क्योंकि सहपाठियों की उम्र का अंतर बना रहता है।
इसलिए अभिभावक हर क्षेत्र में, खासकर शिक्षा के मामले मेंअपनी प्राथमिकताएं निश्चित कर, सोच-समझकर फैसला लें क्योंकि सवाल बच्चों के सुनहरे भविष्य का है।
समस्या-समाधान
माता-पिता दोनों की नौकरी की वजह से बच्चों को जल्दी स्कूल भेजना पड़ता है। ऐसी किसी स्थिति में औपचारिक शिक्षा जल्दी शुरू ना करवाकर केवल गतिविधियों और खेल-कूद के लिए प्ले स्कूल भेजें, जहां समय से पहले लिखने पर जोर ना दिया जाए।
बच्चों के स्कूल के चयन में या विषय के चयन में आप असमंजस की स्थिति में रहते हैं और अक्सर दूसरों की राय और सलाह से निर्णय लेते हैं। बच्चा आपका है इसलिए स्कूल का चयन आपकी अपनी राय और मानक के हिसाब से होना चाहिए। बड़े बच्चों के विषय चुनने के मामले में भी अपने स्वयं और बच्चों की राय एवं रुचि महत्वपूर्ण हैं। दूसरों से राय लें और निर्णय खुद ही लें।
कोट
व्यक्ति की सफलता उसके द्वारा निर्धारित प्राथमिकताओं के अनुपात में होती है। प्राय: माता-पिता बनने के बाद बच्चों ही महत्वपूर्ण प्राथमिकता होते हैं।
जब एक भी और पत्थर डालने की जगह नहीं बची तो शिक्षक ने पूछा कि क्या जार भर गया? सभी ने हामी भर दी। शिक्षक ने कुछ कंचे जार में डाले। जार हिलाते ही कंचे पत्थरों के बीच की खाली जगह में भर गए। शिक्षक ने पूछा कि क्या अब जार पूरा भर गया है, सभी ने तुरंत स्वीकारा। अब शिक्षक ने कुछ रेत ली और जार में डाली। थोड़ा ही हिलाने पर रेत ने बची हुई खाली जगह भर ली। शिक्षक ने अब विद्यार्थियों से कहा कि अगर इस जार में सबसे पहले मैं रेत डाल देता तो एक भी कंचे और पत्थर के लिए जगह न बचती।
अगर इस जार को जीवन की तरह समझा जाए तो उसमें भरने वाल सारी चीजों की प्राथमिकता कुछ इस तरह हो। हमारा परिवार, रिश्तेदार, शिक्षा और स्वास्थ्य उन पत्थरों की तरह हो जिसे सबसे पहले जार में डालना है। हमारी नौकरी, व्यवसाय और इससे जुड़े लोग कंचों की तरह हों जिनकी प्राथमिकता दूसरे नंबर पर हो। इसी तरह सारी विलासिता, कपड़े, गहने और बाकी की भौतिक वस्तुएं रेत की तरह हों जिनका स्थान तीसरे नंबर पर हो।
कई सीख
व्यक्तिगत तौर पर और अभिभावक के रूप में हमें दुविधा रहती है कि कौन सा डॉक्टर अच्छा है? बच्चों के लिए कौन स्कूल सही रहेगा? बच्चों के लिए कौन सा खेल उचित होगा? कई बार तो दुविधा में जैसा दूसरे कर रहे हैं, उन्हीं की देखा-देखी निर्णय लिए जाते हैं। बेहतर शिक्षा हो या चिकित्सा से संबंधित सेवा या फिर किसी अन्य क्षेत्र में चुनाव हमें स्वयं की कुछ प्राथमिकताएं निर्धारित करनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र से संबंधित विशिष्ट चीजों के साथ समझौता ना करना पड़े। अब जब बात शिक्षा और स्कूल के चयन की आती है तो अमूमन अभिभावकों की प्राथमिकता बड़ी विचित्र और अस्पष्ट रहती है। उन्हें लगता है कि स्कूल नामी हो, इमारत बड़ी हो। आजकल स्कूल एक ‘स्टेटस सिंबल’ की तरह हो गया है। यहां प्राथमिकता कुछ इस तरह हो कि स्कूल किन नैतिक मूल्यों एवं धारणाओं के आधार पर बनता है। वहां के शिक्षक अच्छे इंसान हों और मधुरभाषी, उदार और संयमी हों जिनके पास विषय के ज्ञान केअलावा नैतिक और मानवीय मूल्यों का खजाना हो।
फिर आती है अन्य सुविधाओं, कक्षा, मैदान और आधुनिक उपकरणों की बारी और शिक्षण पर लगने वाला शुल्क। फिर आता है खाने और आने-जाने की सुविधा का नंबर। यहां सुविधाओं पर ध्यान देना जरूरी है परंतु इनमें समझौता किया जा सकता है लेकिन प्राथमिकता के हिसाब से सीखने की प्रक्रिया और शिक्षा से समझौता नहीं होना चाहिए।
हर क्षेत्र में हमें तय करना होगा कि कौन सी चीज ‘पत्थर’ होगी और कौन सी ‘कंचे’ और कौन सी ‘रेत’ होगी। इसके अलावा अभिभावकों की दुविधा यह भी होती है कि स्कूल कब हो? यानि उन्हें औपचारिक शिक्षा किस उम्र से दी जाए? कई अभिभावक दो-तीन महीने के अंतर को भूलकर जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि बच्चों की उम्र मानक के हिसाब से हो। जहां बच्चों को नर्सरी (प्रथम कक्षा) में ढाई से साढ़े तीन साल में जाना चाहिए। वहीं कई माता-पिता दो या सवा दो साल मे भी भर्ती करा देते हैं। इस वजह से कक्षा के बच्चों की उम्र का अंतर डेढ़ साल तक हो जाता है और छोटी उम्र वाले बच्चों की तुलना उसी की कक्षा के बड़ी उम्र के बच्चों से की जाने लगती है। बच्चों को लगता है कि उनमें कुछ कमी है। इस तरह छोटे बच्चों पिछड़ जाते हैं क्योंकि सहपाठियों की उम्र का अंतर बना रहता है।
इसलिए अभिभावक हर क्षेत्र में, खासकर शिक्षा के मामले मेंअपनी प्राथमिकताएं निश्चित कर, सोच-समझकर फैसला लें क्योंकि सवाल बच्चों के सुनहरे भविष्य का है।
समस्या-समाधान
माता-पिता दोनों की नौकरी की वजह से बच्चों को जल्दी स्कूल भेजना पड़ता है। ऐसी किसी स्थिति में औपचारिक शिक्षा जल्दी शुरू ना करवाकर केवल गतिविधियों और खेल-कूद के लिए प्ले स्कूल भेजें, जहां समय से पहले लिखने पर जोर ना दिया जाए।
बच्चों के स्कूल के चयन में या विषय के चयन में आप असमंजस की स्थिति में रहते हैं और अक्सर दूसरों की राय और सलाह से निर्णय लेते हैं। बच्चा आपका है इसलिए स्कूल का चयन आपकी अपनी राय और मानक के हिसाब से होना चाहिए। बड़े बच्चों के विषय चुनने के मामले में भी अपने स्वयं और बच्चों की राय एवं रुचि महत्वपूर्ण हैं। दूसरों से राय लें और निर्णय खुद ही लें।
कोट
व्यक्ति की सफलता उसके द्वारा निर्धारित प्राथमिकताओं के अनुपात में होती है। प्राय: माता-पिता बनने के बाद बच्चों ही महत्वपूर्ण प्राथमिकता होते हैं।
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