Monday, February 16, 2015

खेल को खेल रहने दें

खेल को खेल रहने दें
खेल खेल हैं। इसे खेल की तरह ही लिया जाना चाहिए। भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच का इस प्रकार का उन्मान कि ऑस्ट्रेलिया तक के एक क्लब में दोनों देशों के लोग मारपीट करने लगें, घायल हो जाएं, भारत के किसी शहर में हिंसा हो जाए इसे किसी तरह संतुलित समाज का व्यवहार नहीं कहा जा सकता है।
इस तरह का जुनून आखिर क्यों पैदा होता है और इसे उत्तेजित करने वाले कौन होते हैं? पाकिस्तान के कराची से एक लाइव तस्वीर टीवी पर दिखाई जा रही है जिसमें लोग गुस्से में अपना टीवी फोड़ते दिख रहे है। खबर में कहा जा रहा है ऐसा करने वाले के अनुसार न रहेगा टीवी न देखेंगे मैच। पता नहीं इस खबर में कितना सच्चाई है। आखिर तात्कालिक गुस्से में टीवी फोड़ने वाले चैनलों को पहले से क्यों बुलाकर रखेंगे? या उसकी फिल्म क्यों बनाएंगे? इसलिए वह दृश्य स्वाभविक से ज्यादा कृत्रिम लगता है।
लेकिन इन सबसे हम माहौल कितने जुनून और उन्माद का बना रहे हैं। पाकिस्तान और भारत के बीच रिश्ते वैसे ही आतंकवाद, कश्मीर में हिंसा और सीमा पार से गोलीबारी की भेंट चढ़ता रहा है। मैं हमेशा युद्ध का विरोधी रहा हूं, लेकिन इन मामलों में भी यदि आतंकवादी मारे जाएं, या सीमा पर हमारे सुरक्षा बल पाकिस्तानी सुरक्षा बलों की साजिशों को अपनी वीरता से ध्वस्त कर दें, पाकिस्तान को झुका दे ंतो जश्न और जुनून समझ में आता है।
साफ है कि हमारा देश का बड़ा वर्ग सच और झूठ के युद्ध में अंतर नहीं कर पाता, सच और झूठ विजय के बीच अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पता। एक सामान्य से 100 ओवर के मैच पर, जिससे वास्तविक जीवन या धरातल पर किसी मामले में कोई अंतर नहीं आ सकता, इस तरह का उन्माद डरावना है। यह विवेकहीनता है।
टीम की जीत पर खुश होने में कोई समस्या नहीं, आप खुशी भी मना लीजिए, लेकिन उसकी सीमा होगी। इससे देश की किसी समस्या का समाधान तो हो नहीं रहा। हां, खिलाड़ियों की जेबें ज्यादा गरम होंगी, चैनलों को विज्ञापन ज्यादा मिलेेंगे, जिनका विज्ञापन होगा उनका माल भी ज्यादा बिक सकता है। लेकिन यह भी तो सोचिए कि हमें, आपको देश की आम जनता को इससे क्या मिलेगा?