प्राणों में चेतना, बाजुओं में फड़कन और रक्त में उबाल पैदा कर देने
वाली 12वीं शताब्दी की बुन्देलों की शौर्यगाथा (आल्हा) के स्वर अब क्षीण हो
चले हैं।
मानसून की बेरुखी से साल दर साल सूखे से तबाह हो रहे विन्ध्य अंचल में बढ़ रहे पानी के संकट के चलते यहां के लोगों के कंठो में इसकी लय थमने लगी है। वीर रस का यह महाकाव्य सावन के मौके में पढा और गाया जाता है लेकिन गांव की चौपाले अब इससे सूनी हैं। ढोलक की थाप पर गूंजने वाली आल्हा के स्थान पर अब चौपालों पर सन्नाटा पसरा रहता है।
एक दशक पहले तक उत्तर भारत के गांवों की चौपालें सावन के आगमन के साथ ही आल्हा के ओजस्वी गायन से गूंजने लगती थीं और रुनझुन फुहारों के बीच आल्हा की अनुगूंज वातावरण में रस घोल देती थी। लोग अपना सारा कामकाज छोड़कर झुंड के झुंड इस ओर खिंचे चले आते थे और घंटों बैठकर इसका आनन्द लेते थे।
हाल के वर्षो में प्रकृति के कोप के चलते बुन्देली लोकजीवन की शौर्य भरी यह झांकी अब दम तोड़ रही हैं। साथ ही इस परंपरा के संवाहक भी धीरे धीरे इससे मुंह मोड़ बैठे हैं।
देश के हिंदी भाषी क्षेत्रों में रामचरित मानस के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय आल्हाखंड में महोबा के चंदेल शासनकाल के दो वीर योद्धाओं आल्हा और ऊदल के शौर्य तथा पराक्रम का वर्णन है।यह पराक्रम उन्होंने अपनी मातृभूमि की आन-बान-शान के लिए विभिन्न युद्धों में दिखाया था।
इतिहासकार आल्हा में 52 युद्ध होने की बात स्वीकारते हैं लेकिन प्रामाणिक रुप से 13 युद्ध प्रसंग ही जाने जाते हैं।आल्हा में सर्वाधिक लोकप्रिय युद्ध प्रसंगों में से (भुजरियों की लडाई) में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान की सेना और चंदेल सेना के मध्य हुए ऐतिहासिक युद्ध का वर्णन है जिसमें आल्हा और ऊदल की वीरता के आगे चौहान सेना टिक नही सकी थी और उसे बुरी तरह से मुंह की खानी पडी थी।
यह युद्ध सावन माह की पूर्णमासी को लडा़ गया था जिसकी वजह से महोबा में रक्षाबंधन का त्यौहार नही मनाया जा सका था और भुजरियों के विर्सजन की परंपरा भी टूट गई थी।
इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना की भारी पराजय के बाद अगले दिन महोबा के आसपास के क्षेत्र में न सिर्फ विजयोत्सव मनाया गया बल्कि बहनों ने भाइयों के राखी बांधी और भुजरियों का विर्सजन किया गया। साहित्यकार संतोष कुमार पटैरिया के अनुसार वीररस का अनूठा
और एक मात्र महाकाव्य होने के कारण आल्हा को भारत ही नही बल्कि विदेश में भी काफी लोकप्रियता हासिल हुई।
फिजी (जावा)सुमात्रा और इंडोनेशिया आदि में बसे भारतीय मूल के लोगों की मांग पर कुछ बरस पहले तक कानपुर के श्रीकृष्ण पुस्तकालय से इसे पार्सल के जरिए वहां भेजा जाता रहा।
द्वितीय विश्व युद्ध में आल्हा ने भारतीय सैनिकों में जोश और स्फूर्ति का संचार किया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों को आल्हा से प्रेरणा मिलती थी तथा पं.परमानन्द, चंद्रशेखर आजाद, दीवान शतुध्न सिंह जैसे महान देशभक्त फुर्सत के क्षणों में सामूहिक आल्हा गायन करके मन बहलाया करते थे।
आल्हाखंड के रचयिता जगनिक के नाम पर स्थापित जगनिक शोध संस्थान के सचिव डा. वीरेन्द्र निर्झर के अनुसार आल्हा, अवधी,कन्नौजी , भोजपुरी और बुन्देलखंडी आदि बोलियों में गाई जाती है। बुन्देली शैली में ओज का प्रभाव अधिक होने के कारण यह श्रोताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है।
आल्हा की रचना चंदवरदाई के पृथ्वीराज रासो तथा कवि जगनिक के परमाल रासो की सामग्री से हुई बताई जाती है लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नही है। पिछले आठ सौ से अ िधक वर्षो से आल्हा को जीवंत रखने वाले आल्हा गायकों (अल्हैत) कहा जाता है। गुरु शिष्य परंपरा में आल्हा ने अभी तक एक स्वर से दूसरे स्वर तक यात्रा की है इसलिए इसमें कुछ विसंगतियां भी आई हैं।
सुप्रसिद्ध आल्हा गायक बच्चा सिंह का कहना है कि आल्हा की लोकप्रियता में कमी आने का प्रमुख कारण मौजूदा दौर की चकाचौंध है। पहले रियासतों द्वारा आल्हा गायकों को प्रश्रय दिया जाता था लेकिन अब न आल्हा की कद्र रही और न अल्हैतों की।
महोबा के कजली महोत्सव तक में अब आल्हा गायन की परंपरा लुप्त हो चली है। इसके गायन की प्राचीन परंपरा को ठप कर दिया गया है।
मानसून की बेरुखी से साल दर साल सूखे से तबाह हो रहे विन्ध्य अंचल में बढ़ रहे पानी के संकट के चलते यहां के लोगों के कंठो में इसकी लय थमने लगी है। वीर रस का यह महाकाव्य सावन के मौके में पढा और गाया जाता है लेकिन गांव की चौपाले अब इससे सूनी हैं। ढोलक की थाप पर गूंजने वाली आल्हा के स्थान पर अब चौपालों पर सन्नाटा पसरा रहता है।
एक दशक पहले तक उत्तर भारत के गांवों की चौपालें सावन के आगमन के साथ ही आल्हा के ओजस्वी गायन से गूंजने लगती थीं और रुनझुन फुहारों के बीच आल्हा की अनुगूंज वातावरण में रस घोल देती थी। लोग अपना सारा कामकाज छोड़कर झुंड के झुंड इस ओर खिंचे चले आते थे और घंटों बैठकर इसका आनन्द लेते थे।
हाल के वर्षो में प्रकृति के कोप के चलते बुन्देली लोकजीवन की शौर्य भरी यह झांकी अब दम तोड़ रही हैं। साथ ही इस परंपरा के संवाहक भी धीरे धीरे इससे मुंह मोड़ बैठे हैं।
देश के हिंदी भाषी क्षेत्रों में रामचरित मानस के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय आल्हाखंड में महोबा के चंदेल शासनकाल के दो वीर योद्धाओं आल्हा और ऊदल के शौर्य तथा पराक्रम का वर्णन है।यह पराक्रम उन्होंने अपनी मातृभूमि की आन-बान-शान के लिए विभिन्न युद्धों में दिखाया था।
इतिहासकार आल्हा में 52 युद्ध होने की बात स्वीकारते हैं लेकिन प्रामाणिक रुप से 13 युद्ध प्रसंग ही जाने जाते हैं।आल्हा में सर्वाधिक लोकप्रिय युद्ध प्रसंगों में से (भुजरियों की लडाई) में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान की सेना और चंदेल सेना के मध्य हुए ऐतिहासिक युद्ध का वर्णन है जिसमें आल्हा और ऊदल की वीरता के आगे चौहान सेना टिक नही सकी थी और उसे बुरी तरह से मुंह की खानी पडी थी।
यह युद्ध सावन माह की पूर्णमासी को लडा़ गया था जिसकी वजह से महोबा में रक्षाबंधन का त्यौहार नही मनाया जा सका था और भुजरियों के विर्सजन की परंपरा भी टूट गई थी।
इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना की भारी पराजय के बाद अगले दिन महोबा के आसपास के क्षेत्र में न सिर्फ विजयोत्सव मनाया गया बल्कि बहनों ने भाइयों के राखी बांधी और भुजरियों का विर्सजन किया गया। साहित्यकार संतोष कुमार पटैरिया के अनुसार वीररस का अनूठा
और एक मात्र महाकाव्य होने के कारण आल्हा को भारत ही नही बल्कि विदेश में भी काफी लोकप्रियता हासिल हुई।
फिजी (जावा)सुमात्रा और इंडोनेशिया आदि में बसे भारतीय मूल के लोगों की मांग पर कुछ बरस पहले तक कानपुर के श्रीकृष्ण पुस्तकालय से इसे पार्सल के जरिए वहां भेजा जाता रहा।
द्वितीय विश्व युद्ध में आल्हा ने भारतीय सैनिकों में जोश और स्फूर्ति का संचार किया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों को आल्हा से प्रेरणा मिलती थी तथा पं.परमानन्द, चंद्रशेखर आजाद, दीवान शतुध्न सिंह जैसे महान देशभक्त फुर्सत के क्षणों में सामूहिक आल्हा गायन करके मन बहलाया करते थे।
आल्हाखंड के रचयिता जगनिक के नाम पर स्थापित जगनिक शोध संस्थान के सचिव डा. वीरेन्द्र निर्झर के अनुसार आल्हा, अवधी,कन्नौजी , भोजपुरी और बुन्देलखंडी आदि बोलियों में गाई जाती है। बुन्देली शैली में ओज का प्रभाव अधिक होने के कारण यह श्रोताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है।
आल्हा की रचना चंदवरदाई के पृथ्वीराज रासो तथा कवि जगनिक के परमाल रासो की सामग्री से हुई बताई जाती है लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नही है। पिछले आठ सौ से अ िधक वर्षो से आल्हा को जीवंत रखने वाले आल्हा गायकों (अल्हैत) कहा जाता है। गुरु शिष्य परंपरा में आल्हा ने अभी तक एक स्वर से दूसरे स्वर तक यात्रा की है इसलिए इसमें कुछ विसंगतियां भी आई हैं।
सुप्रसिद्ध आल्हा गायक बच्चा सिंह का कहना है कि आल्हा की लोकप्रियता में कमी आने का प्रमुख कारण मौजूदा दौर की चकाचौंध है। पहले रियासतों द्वारा आल्हा गायकों को प्रश्रय दिया जाता था लेकिन अब न आल्हा की कद्र रही और न अल्हैतों की।
महोबा के कजली महोत्सव तक में अब आल्हा गायन की परंपरा लुप्त हो चली है। इसके गायन की प्राचीन परंपरा को ठप कर दिया गया है।
No comments:
Post a Comment