औरतों को अगर सशक्त बनाना है, तो शिक्षा आज सबसे बड़ी जरूरत है। लड़कियों
को तो शिक्षा की जरूरत है ही, लड़कों को भी सिखाना होगा कि वे लड़कियों की
इज्जत करें। साथ ही लड़कियों को भी ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वे अपने महत्व
को समझें, खुद अपना सम्मान करना सीखें। उनके लिए अपना आत्म-सम्मान सबसे
बड़ी चीज होनी चाहिए। औरतों से जुड़ी हर समस्या का समाधान लड़कियों की
शिक्षा पर ही निर्भर है। लड़कियां शिक्षित होंगी, तो वे अपने आप में सशक्त
भी होंगी। तब उनका शोषण आसान नहीं होगा। वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकेंगी।
अगर वे अपने पैरों पर खड़ी होंगी, तो उनके अंदर एक आत्मविश्वास भी होगा। तब
उन्हें आसानी से घरेलू हिंसा का शिकार भी नहीं बनाया जा सकेगा। अगर लड़की
अनपढ़ होगी, तो हो सकता है कि एक हद के बाद वह लाचार हो जाए। शिक्षा से ही
हर नारी सशक्त बन सकती है।
इसके लिए हमें शिक्षा और उसके प्रति सोच में भी बदलाव लाना होगा। सरकार और तमाम लोग भी यह दावा करते हैं कि अब गांवों में भी स्कूल खुल गए हैं, वहां गरीब परिवार की लड़कियां भी स्कूल जाने लगी हैं। मगर जमीनी सच्चाई यह है कि गरीब परिवार अपने बच्चों को स्कूल अक्सर ‘मिड-डे मील’ के लिए भेजते हैं। मेरी फिल्म गुलाब गैंग में एक सीन है, जहां गरीब परिवार गरमी की छुट्टियों में भी स्कूल बंद करने के खिलाफ आवाज उठाते हैं, क्योंकि स्कूल खुला रहेगा, तो बच्चों को कम से कम एक समय तो खाना मिल सकेगा। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे लोगों को लगे की मिड-डे मील से आगे भी इसका जीवन में कोई व्यावहारिक महत्व है।
लोग कहते हैं कि गांव में रहने वाले दकियानूसी होते हैं। वहां लड़कियों की शिक्षा का महत्व नहीं समझा जाता। मैं इस तरह की बातों से सहमत नही हूं। सिर्फ गांवों में ही लड़के और लड़की में भेदभाव नहीं किया जाता। मेरी परवरिश मुंबई जैसे महानगर में हुई है। लेकिन मेरा संबंध एक दकियानूसी परिवार से है। मेरी दादी को मेरा डांस सीखना भी पसंद नहीं था। पर आज मैं यहां तक इसलिए पहुंच पाई, क्योंकि मेरी मां शिक्षित थीं और उन्होंने हम बहनों को डांस सिखवाना शुरू किया था। मैंने तीन साल की उम्र में डांस सीखना शुरू किया था। तब मुझे इस बात की समझ भी नहीं थी कि इससे आगे जाकर क्या होगा? पर उसी की वजह से मैं आज यहां तक पहुंची हूं।
हमारे यहां का जो सामाजिक माहौल है, उसमें हर तरह से लड़की को ही दबाया जाता है। यही सिखाया जाता है कि उसे शादी करनी है। दूसरे घर जाना है। पति, सास-ससुर की सेवा करनी है। इसलिए लड़कियां अपने बारे में सोचने की बजाय अपने भावी पति के बारे में सपने बुनती रहती हैं। वे ससुराल में जाकर क्या करेंगी? इससे उनके अंदर खुद को लेकर कोई आत्म-सम्मान नहीं बनता। जबकि प्राथमिकता आत्म-सम्मान को मिलनी चाहिए, बाकी चीजें इसके बाद की हैं। हर लड़की को यह समझना चाहिए कि देश के विकास या देश के उत्थान में जितना योगदान लड़कों का है, उतना ही लड़कियों का भी है। लड़कियों को यह भी सोचना चाहिए कि पति, शादी-ब्याह और घर से परे भी एक दुनिया है। अगर आत्म-सम्मान के साथ अपने पैरों पर खड़ी होंगी, तभी वे देश के विकास में बराबर का योगदान दे पाएंगी। हम आए दिन औरतों के शोषण और उत्पीड़न की खबरें सुनते हैं। गुस्सा भी आता है।
कई बार हमें कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। कई बार हमें कठोर बनना पड़ता है। यह बहुत दुखद है कि भारत में औरतों के साथ अमानवीय व्यवहार अक्सर होता है। यहां तक कि नाबालिग लड़कियों के साथ भी रेप की घटनाएं बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। और यह नई बात नहीं है। जब मैं पढ़ती थी, ट्रेन या बस में यात्रा करती थी, तब लोग हमें छूने का प्रयास करते थे या फब्तियां कसते थे। तब अपमान ही नहीं, हीनता का एहसास होता था। यह सब तब तक नहीं रुक सकता, जब तक कि हर इंसान की सोच नहीं बदलती। यह पूरी तरह से पुरुष माइंडसेट को बदलने का मामला है।
जब बचपन से बेटी घर के अंदर अपनी मां को प्रताड़ित और शोषित होते देखती है, तो उसके दिमाग में यह बात आ जाती है कि हमें तो शोषित और प्रताड़ित होना ही है। समाज में मां अपने आपको इतना असुरक्षित पाती है कि वह सब कुछ सहती है और अपनी बेटियों को भी सहने की शिक्षा देती रहती है। वह बेटी को बचपन से ही यह समझाती है कि तुम्हारे भाई के लिए ये चीजें हैं और तुम्हारे लिए वह। यह भेदभाव तो परिवार के अंदर ही शुरू हो जाता है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर लड़की हीन ग्रंथी का शिकार हो जाती है। इसलिए पहली शुरुआत परिवार से ही करनी होगी। जब लड़की और लड़के में परिवार के अंदर कोई भेदभाव नहीं होगा, तो बहुत-सी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी।
हर समस्या से निपटने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम उनके साथ संघर्ष करें। समस्या को देखकर आखें बंद कर लेना या पलायन करना, सबसे ज्यादा खतरनाक होता है। समस्याओं के अनुरूप उनसे निपटने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं।
हर इंसान की अपनी सोच और उसके एटीट्यूड के आधार पर भी समस्याओं से अलग तरीके से निपटा जा सकता है। समाज में फैली बुराइयों या नारी उत्पीड़न के बाद लोग सारा दोष सिनेमा पर मढ़ते हैं। कई बार मुझे खुद कुछ फिल्में देखकर तकलीफ होती है कि हम सिनेमा में क्या दिखा रहे हैं? इसके बावजूद मेरा मानना है कि बुराई की जड़ सिनेमा नहीं है। सिनेमा तो अभी सौ साल का हुआ है, लेकिन अपराध तो उससे पहले से होते आ रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा कभी किसी को कुछ सिखाता नहीं है। पिछले दिनों जब मैंने फिल्म गुलाब गैंग में काम किया, तो मुझे काफी संतोष मिला। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि हमने सही वक्त पर लड़कियों को सही संदेश देने वाली फिल्म बनाई है। इससे मेरे अंदर का आत्म विश्वास और बढ़ा है। लेकिन मुझे पता है कि इतना ही काफी नहीं है। समाज की बुराइयों को खत्म करने के लिए अभी हमें काफी संघर्ष करना है। हमें पत्थर नहीं बनना है, इंसान की तरह इंसाफ के लिए लड़ना है।
इसके लिए हमें शिक्षा और उसके प्रति सोच में भी बदलाव लाना होगा। सरकार और तमाम लोग भी यह दावा करते हैं कि अब गांवों में भी स्कूल खुल गए हैं, वहां गरीब परिवार की लड़कियां भी स्कूल जाने लगी हैं। मगर जमीनी सच्चाई यह है कि गरीब परिवार अपने बच्चों को स्कूल अक्सर ‘मिड-डे मील’ के लिए भेजते हैं। मेरी फिल्म गुलाब गैंग में एक सीन है, जहां गरीब परिवार गरमी की छुट्टियों में भी स्कूल बंद करने के खिलाफ आवाज उठाते हैं, क्योंकि स्कूल खुला रहेगा, तो बच्चों को कम से कम एक समय तो खाना मिल सकेगा। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे लोगों को लगे की मिड-डे मील से आगे भी इसका जीवन में कोई व्यावहारिक महत्व है।
लोग कहते हैं कि गांव में रहने वाले दकियानूसी होते हैं। वहां लड़कियों की शिक्षा का महत्व नहीं समझा जाता। मैं इस तरह की बातों से सहमत नही हूं। सिर्फ गांवों में ही लड़के और लड़की में भेदभाव नहीं किया जाता। मेरी परवरिश मुंबई जैसे महानगर में हुई है। लेकिन मेरा संबंध एक दकियानूसी परिवार से है। मेरी दादी को मेरा डांस सीखना भी पसंद नहीं था। पर आज मैं यहां तक इसलिए पहुंच पाई, क्योंकि मेरी मां शिक्षित थीं और उन्होंने हम बहनों को डांस सिखवाना शुरू किया था। मैंने तीन साल की उम्र में डांस सीखना शुरू किया था। तब मुझे इस बात की समझ भी नहीं थी कि इससे आगे जाकर क्या होगा? पर उसी की वजह से मैं आज यहां तक पहुंची हूं।
हमारे यहां का जो सामाजिक माहौल है, उसमें हर तरह से लड़की को ही दबाया जाता है। यही सिखाया जाता है कि उसे शादी करनी है। दूसरे घर जाना है। पति, सास-ससुर की सेवा करनी है। इसलिए लड़कियां अपने बारे में सोचने की बजाय अपने भावी पति के बारे में सपने बुनती रहती हैं। वे ससुराल में जाकर क्या करेंगी? इससे उनके अंदर खुद को लेकर कोई आत्म-सम्मान नहीं बनता। जबकि प्राथमिकता आत्म-सम्मान को मिलनी चाहिए, बाकी चीजें इसके बाद की हैं। हर लड़की को यह समझना चाहिए कि देश के विकास या देश के उत्थान में जितना योगदान लड़कों का है, उतना ही लड़कियों का भी है। लड़कियों को यह भी सोचना चाहिए कि पति, शादी-ब्याह और घर से परे भी एक दुनिया है। अगर आत्म-सम्मान के साथ अपने पैरों पर खड़ी होंगी, तभी वे देश के विकास में बराबर का योगदान दे पाएंगी। हम आए दिन औरतों के शोषण और उत्पीड़न की खबरें सुनते हैं। गुस्सा भी आता है।
कई बार हमें कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। कई बार हमें कठोर बनना पड़ता है। यह बहुत दुखद है कि भारत में औरतों के साथ अमानवीय व्यवहार अक्सर होता है। यहां तक कि नाबालिग लड़कियों के साथ भी रेप की घटनाएं बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। और यह नई बात नहीं है। जब मैं पढ़ती थी, ट्रेन या बस में यात्रा करती थी, तब लोग हमें छूने का प्रयास करते थे या फब्तियां कसते थे। तब अपमान ही नहीं, हीनता का एहसास होता था। यह सब तब तक नहीं रुक सकता, जब तक कि हर इंसान की सोच नहीं बदलती। यह पूरी तरह से पुरुष माइंडसेट को बदलने का मामला है।
जब बचपन से बेटी घर के अंदर अपनी मां को प्रताड़ित और शोषित होते देखती है, तो उसके दिमाग में यह बात आ जाती है कि हमें तो शोषित और प्रताड़ित होना ही है। समाज में मां अपने आपको इतना असुरक्षित पाती है कि वह सब कुछ सहती है और अपनी बेटियों को भी सहने की शिक्षा देती रहती है। वह बेटी को बचपन से ही यह समझाती है कि तुम्हारे भाई के लिए ये चीजें हैं और तुम्हारे लिए वह। यह भेदभाव तो परिवार के अंदर ही शुरू हो जाता है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर लड़की हीन ग्रंथी का शिकार हो जाती है। इसलिए पहली शुरुआत परिवार से ही करनी होगी। जब लड़की और लड़के में परिवार के अंदर कोई भेदभाव नहीं होगा, तो बहुत-सी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी।
हर समस्या से निपटने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम उनके साथ संघर्ष करें। समस्या को देखकर आखें बंद कर लेना या पलायन करना, सबसे ज्यादा खतरनाक होता है। समस्याओं के अनुरूप उनसे निपटने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं।
हर इंसान की अपनी सोच और उसके एटीट्यूड के आधार पर भी समस्याओं से अलग तरीके से निपटा जा सकता है। समाज में फैली बुराइयों या नारी उत्पीड़न के बाद लोग सारा दोष सिनेमा पर मढ़ते हैं। कई बार मुझे खुद कुछ फिल्में देखकर तकलीफ होती है कि हम सिनेमा में क्या दिखा रहे हैं? इसके बावजूद मेरा मानना है कि बुराई की जड़ सिनेमा नहीं है। सिनेमा तो अभी सौ साल का हुआ है, लेकिन अपराध तो उससे पहले से होते आ रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा कभी किसी को कुछ सिखाता नहीं है। पिछले दिनों जब मैंने फिल्म गुलाब गैंग में काम किया, तो मुझे काफी संतोष मिला। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि हमने सही वक्त पर लड़कियों को सही संदेश देने वाली फिल्म बनाई है। इससे मेरे अंदर का आत्म विश्वास और बढ़ा है। लेकिन मुझे पता है कि इतना ही काफी नहीं है। समाज की बुराइयों को खत्म करने के लिए अभी हमें काफी संघर्ष करना है। हमें पत्थर नहीं बनना है, इंसान की तरह इंसाफ के लिए लड़ना है।
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