Tuesday, April 28, 2009

प्राथमिक शिक्षा

जो राजनेता शायद ही कभी एयर कंडीशन कमरों से बाहर निकलते हों वे भी चुनाव के मौके पर गांवों में जाकर गरीबों के बच्चों को गोद में लेकर पुचकारते नजर आते है या फिर गरीब बूढ़ी औरत के सामने हाथ जोड़े दिखाई देते हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे गरीबों की सबसे अधिक चिंता इन्हीं की पार्टी को है। गरीब और गरीबी, दोनों को ही अपने देश में इन बड़े-बड़े राजनेताओं ने मजाक की वस्तु बना दिया है। तरह-तरह के मुद्दे उठाए जा रहे हैं। रोज नए-नए वायदे किए जा रहे है। समाज को हाईटेक बनाने की बात तो खूब हो रही है, लेकिन क्या किसी भी पार्टी ने अपने चुनावी मुद्दे में गरीब बच्चों की शिक्षा को भी मुद्दा बनाया है? हम खुद को तथाकथित पढ़े-लिखे समाज का अंग मानते हैं और यही पढ़े-लिखे लोग बिना सोचे-समझे ही एक बाहुबली और भ्रष्ट नेता को वोट देते हैं। जो कम पढ़ा-लिखा है उसे क्या पता लोकतंत्र क्या है? उसे तो जो भी बहला-फुसला ले ले उसे अपना वोट दे देगा। पढ़े-लिखे लोग बड़ी-बड़ी बातें करेंगे, समाज को बदलने की बात करेंगे, लेकिन चुनाव के दिन घर से बाहर ही नहींनिकलेंगे। ऐसे में देश भर में फैले अशिक्षा के माहौल के लिए पढ़े-लिखे लोग ही कहींज्यादा जिम्मेदार हैं।
जब भी शिक्षा की बात की जाती है तो लोग देश में रोज खुल रही नई-नई यूनिवर्सिटी, आईआईटी,मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग संस्थान का उदाहरण देते हैं। लेकिन प्राथमिक शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है? सरकारी अफसर, शिक्षा जगत से जुड़े सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तार बड़ी आसानी से देते है कि 'मिड डे मील' जैसी योजनाएं चलाकर गांव-गांव में स्कूल खोल तो दिए गए हैं, अब लोग बच्चों को नियमित स्कूल भेजते ही नहीं तो सरकार क्या करे? क्या गांव में स्कूल के नाम पर कुछ टूटे-फूटे कमरे और उसमें एक शिक्षक रख देने भर से स्कूल बन जाता है? आज भी हमारे देश में बच्चों की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा विद्यालय नहीं जा पाता। जो 40 प्रतिशत बच्चे विद्यालय जाते भी हैं वे कुछ भी सीख नहीं पाते। ऐसे में अभिभावक निराश होकर अपने बच्चों को विद्यालय भेजना बंद कर देते हैं। यह अच्छी बात है कि देश में उच्च शिक्षण संस्थान खुलें, लेकिन जब तक हमारे देश में इन गरीब बच्चों की प्राइमरी शिक्षा के लिए पर्याप्त स्कूल नहीं खुलते तब तक एक भी नई यूनिवर्सिटी को खोला जाना बेईमानी है। जितनी लागत में एक नई यूनिवर्सिटी खुलती है और सालना उसके रखरखाव में खर्च होता है उतने खर्च में तो हजारों प्राइमरी स्कूल खोले जा सकते हैं, जहां गरीबों के बच्चों की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था की जा सकती है। उच्च शिक्षा के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाना और प्राथमिक शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाओं को भी मुहैया न कराना कहां का न्याय है।
उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। आज हर पूंजीपति और उद्योगपति प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज, यूनिवर्सिटी आदि खोलकर खूब कमाई कर रहा है। पहले पैसे वाले उद्योगपति समाज सेवा के नाम पर धर्मार्थ विद्यालय व चिकित्सालय खोलते थे, लेकिन आज के व्यवसायीकरण के माहौल में यह परंपरा बिल्कुल बंद हो गई है। सरकार प्रौढ़ शिक्षा की बात करती है। इसके लिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि अगर आजादी के बाद सरकार ने ईमानदारीपूर्वक गरीब बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा का अभियान चलाया होता तो आज किसी प्रौढ़ को शिक्षित करने की जरूरत नहीं पड़ती। शिक्षा से समाज में फैली अधिकांश समस्याएं अपने आप ही हल हो जाती हैं। जिन अनेक योजनाओं पर सरकार वर्र्षो से पैसा लुटा रही है उनका समाधान साक्षरता से हो सकता था। जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, गरीबी, बाल मजदूरी जैसी समस्याएं शिक्षा के प्रसार से अपने आप कम हो जाएंगी। आखिर निर्धन वर्ग के बच्चे को इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए कि वह अभाव में भी लिख-पढ़ सके। तभी वह लोकतंत्र, चुनाव का मतलब समझ सकेगा। सिर्फ यह कह देने से काम नहींचलेगा कि हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान लागू है अथवा जनता द्वारा निर्वाचित सरकार जनता के लिए है। गरीबों की शिक्षा का उपहास उड़ाना बंद कर कुछ मजबूत कदम उठाए जाएं, तभी स्थिति में कुछ सुधार होगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की तर्ज पर बेसिक शिक्षा के लिए भी एक अनुदान आयोग बनना चाहिए। सरकार को ऐसे प्रयास भी करने चाहिए जिससे उद्योगपति तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के संस्थान अथवा अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल खोलने के साथ-साथ गांवों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए भी स्कूल खोलने के लिए आगे आएं। इसके लिए सरकार को नीतिगत स्तर पर ठोस पहल करनी होगी।

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