कैसे चले गुजारा बाबा, इस महंगाई में।
चौकी के संग चूल्हा रोये, इस महंगाई में।
बैंगन फिसल रहा हाथों से,
कुंदरु करे गुमान।
चुटचुटिया कहने लगी,
मै महलों की मेहमान।
भाजी भौहें तान रही है, इस महंगाई में।
मुनिया दूध को रोती है,
मुन्ना मांगे रोटी।
पीठ तक जा पहुंचा पेट,
ढीली हुई लंगोटी।
चुहिया भी उपवास रहे अब, इस महंगाई में।
शासन पर राशन है भारी,
ये कैसी है लाचारी।
काले धंधे, गोरख धंधे,
और जमाखोरी जारी।
चीनी भी कड़वी लगती है, इस महंगाई में।
मन का दीपक जलता है,
बिन बाती बिन तेल।
कहीं दिवाली, कहीं दिवाला,
पैसे का सब खेल।
तन के भीतर आतिशबाजी, इस महंगाई में।
----
Thursday, October 28, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment