गए थे परदेस में रोजी रोटी कमानेचेहरे वहां हजारों थे पर सभी अनजाने
दिन बीतते रहे महीने बनकरअपने शहर से ही हुए बेगाने
गोल रोटी ने कुछ ऐसा चक्कर चलायाकभी रहे घर तो कभी पहुंचे थाने
बुरा करने से पहले हाथ थे काँपतेपेट की अगन को भला दिल क्या जाने
मासूम आँखें तकती रही रास्ता खिड़की सेक्यों बिछुड़ा बाप वो नादाँ क्या जाने
दूसरों के दुःख में दुखी होते कुछ लोगहर किसी को गम सुनाने वाला क्या जाने
Thursday, October 28, 2010
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