जगमग जगमग दीप जले
आये घर में खुशहाली,
आपके जीवन में आये न
कोई अँधेरी रात काली
दुःख दरिद्र सब दूर हो
घर में हो लक्ष्मी का बसेरा
जीवन में आपके कभी
हो न क्षणिक मात्र भी अँधेरा
चेहरे से झलके चिंता न कभी भी
हर पल आनद का अहसास हो
आपके मन मंदिर में केवल
बस ईश्वर का वास हो
भटको ना कभी तुम डगर से अपने
सत्य हो आपके हमेशा करीब
चाहे लाखों तूफान आये
बुझे न आपके जीवन का दीप
हो चारों तरफ हरियाली आपके
खिल उठे हर मुरझाई कली
उमंगो और उत्साह से भरी
मुबारक हो आपको दीपावली
Sunday, November 7, 2010
Tuesday, November 2, 2010
Thursday, October 28, 2010
मेरे मोहल्लेवालों का व्रत
हिंदुस्तान में व्रत रखने की बहुत ही प्राचीन परम्परा है। और हिन्दुस्तानी परम्परा को बनाये रखना जानते हैं। किसी भी रूप में ही सही। यह इनकी अनेकों खासियतों में से एक है। पहले हमारे ऋषि-मुनि व पूर्वज व्रत रखा करते थे। आज भी व्रत रखा ही जाता है। एक नहीं अनेकों लोग रखते हैं। रखने को तो आज के लोग बहुत कुछ रखते हैं। जो रखना होता है उसे भी और जो नहीं रखना होता है उसे भी। कुछ लोग तो जो या जिसे रखना होता है उसे रखते ही नहीं। और जो या जिसे नहीं रखना चाहिए, रख लेते हैं, रखते हैं और कुछ तो रखके घूमते हैं। खैर यहाँ व्रत रखने की चर्चा की जा रही है।
इस समय तो नवरात्रि का पावन पर्व चल ही रहा है। वैसे भी हर हफ्ते लोग कोई न कोई व्रत रख ही लेते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं। जो कहते हैं कि व्रत स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। इसलिए हर हफ्ते कम से कम एक उपवास कर ही लेना चाहिए। और यही उपवास किसी विशेष दिन कर लो तो व्रत हो जाता है। यानी एक पंथ दो काज। इन्हीं में से कुछ ज्ञानी कहते हैं कि इस समय व्रत रखने के कई लाभ हैं। यह बात विज्ञानी सिद्ध कर चुके हैं। जबकि कौन और कहाँ के विज्ञानी और कैसे तथा कब सिद्ध किया ? यह उन्हें तो क्या उनके बाप को भी नहीं मालुम है। फिर भी उनका कहना है कि इसलिए ही नवरात्रि में व्रत रखा जाता है। खैर आज, आज के ज्ञानियों का ही बोलबाला है। उन्हें ही लोग माला पहनाते हैं। जय-जयकार करते हैं।
मेरे मोहल्ले में बहुत से लोग व्रत रखते हैं। यह तो खुशी की ही नहीं बल्कि गर्व की बात है। दीगर है कि बहुत से लोग बिना कोई व्रत लिए ही व्रत रखते हैं। वैसे व्रत रखने के लिए कई चीजों का व्रत लेना पड़ता है। जैसे अन्न न ग्रहण करने का व्रत। संयमित दिनचर्या का व्रत, आदि । आराध्य-आराधना भी व्रत का एक प्रमुख अंग होता ही है। कुछ भी हो व्रत रखने वालों में मेरे मोहल्लेवालों और वालियों का कोई जोड़ नहीं है। आजकल मेरे मोहल्ले में व्रत की धूम है। विज्ञापन कराने में पैसा लगता है। नहीं तो कुछ लोग इस बात का विज्ञापन करा देते कि वे व्रत रख रहे हैं। यह नहीं कर पाते तो अगल-बगल वालों को, मिलने-जुलने वालों को बता-बता कर आत्म संतुष्टि करते हैं। दूर वालों को फोन से सूचित करने में भी नहीं पिछड़ते। आज एक लोग बताने लगे कि मैं व्रत रख रहा हूँ और वो भी पूरे नव दिन का। मैंने उन्हें याद दिलाया कि मुझे आप पहले ही दो बार बता चुके हैं।
मेरे एक पड़ोसी हैं जो व्रत नहीं रखते। लेकिन इनकी श्रीमतीजी नवों दिन का व्रत रख रही हैं। इनका कहना है कि अब नव दिन मुझे खिचड़ी खाकर ही बिताना है। कहते हैं कि किसी दिन खिचड़ी या तहरी बन जाय तो मुझे समझते देर नहीं लगती कि आज श्रीमतीजी का कोई न कोई व्रत जरूर है। इन्हें कौन समझाये कि कमसे कम खिचड़ी ही सही बना-बनाया तो मिल जाता है। खुद बनाना पड़े तो शायद खिचड़ी भी भारी पड़े। पत्नी खुद भूखी रह कर भी खिचड़ी खिला देती है तो क्या कम है ?
बहुत से लोग जिनमें महिलाएं कुछ आगे ही रहती हैं, जब व्रत आरम्भ करना होता है, उसके एक दिन पूर्व बहुत अच्छी-अच्छी पकवान बनाती हैं। जब कल से उपवास ही करना है तो क्यों न आज ही आगामी दिनों का भी खबर ले लिया जाय। इनका मानना होता है कि आज ठीक से खा लो क्योंकि कल या कल से व्रत रखना है। मानो रोज ठीक से खाते ही नहीं। कुछ लोगों के तो इसी चक्कर में पलटी भी हो जाती है। कुछ का पेट खराब हो जाता है।
मेरे पड़ोसी के पास एक से एक खबर है। बता रहे थे कि तिवारीजी कहते हैं कि व्रत रखने का मतलब यह नहीं है कि अपनी काया जला डालो। इसलिए वे दिन भर व्रत रखते हैं और शाम को पूरी-सब्जी, दाल-भात, आदि दबा कर खाते हैं। मतलब अन्न से कोई परहेज नहीं और व्रत भी रख लेते हैं। तिवारी जी का कहना है कि अन्न से परहेज होता तो भगवान अन्न बनाते ही नहीं। रही बात व्रत की तो दिन में सिर्फ एक ही बार तो खाता हूँ। रात में कुछ भी नहीं। पता नहीं व्रत के पहले रात भर खाते रहते थे क्या ? खैर नव दिन का व्रत रखते हैं।
श्रीमती शर्मा, तिवारी जी की बहुत बुराई करती हैं। इनका कहना है कि भूखे नहीं रह सकते तो न रहें। लेकिन अन्न क्यों खाते हैं ? मैं तो अन्न को हाथ नहीं लगाती। सिंगाड़े का आटा लाती हूँ। उसी की पूड़ी और आलू-टमाटर की सब्जी बनाती हूँ। सेंधा नमक इस्तेमाल करती हूँ। बाकले की दाल और तिन्नी का चावल तथा चौराई का साग। यही सब खाकर व्रत रखती हूँ। लेकिन अन्न नहीं छूती हूँ। लेकिन भूखी रहने पर भी पेट खराब हो जाता है, अपच हो जाता है। इतने परहेज के बाद भी।
श्रीमती वर्मा जी के घर में उनकी देवरानी व्रत नहीं रखती। लेकिन इनके फलाहार का सारा इंतजाम करती है। दिन भर में कम से कम डेढ़ किलो दूध, दो दर्जन केला, दो किलो सेब, संतरा, अंगूर आदि तथा जूस और दही मिला चीनी का रस, मूंगफली, बादाम, छुहारा, किसमिस इत्यादि ऊपर से। कल दोनों में कुछ खटपट हो गयी। देवरानी किसी से बोली कि दीदी के फलाहार का इंतजाम करने जा रही हूँ। आधा घंटा कम से कम लग जाता है। इस पर वर्मा जी बोलीं कि भूखी न पियासी और फलाहार के लिए लबर-लबर किये रहती हैं। अब देवरानी की बारी थी बोली इतना सब खाकर व्रत रखना हो तो कौन नहीं रख लेगा ? मैं तो हंसी-खुशी महीनों रह जाऊं। सच है व्यवस्था और इतनी व्यवस्था हो तो कुछ लोग तो कई महीने तक व्रत रखने के लिए तैयार हो जायेंगे।
बहुत से लोग दर्शन के बहाने शहर निकल जाते हैं। और पार्कों आदि में घूम कर आनंद मनाते हैं। कुछ लोग तो सिनेमा देखकर व दिखाकर मनोरंजन करते हैं। एक महिला जो पूरे दिन घूम कर आई थी। सहेली से बता रही थी, शेर देखा हाथी देखा। अब तक तो ठीक था। सुनने वाले समझते थे कि दर्शन करके आई है। लेकिन आगे और सुनने पर पता चला कि वह चिड़ियाघर देख कर आई थी। खैर कुछ लोग कुछ भी देखने को और दिखाने को ही दर्शन बोलते हैं। आज का समय ही ऐसा है कि हर चीज की परिभाषा बदल रही है।
इतना ही नहीं बहुत से नवयुवक चुनरी सर पर बांध कर घूमते हैं। शायद अपने भक्त होने का तथा अपनी भक्ति का खुलेआम एलान करने का वीणा उठा चुके हैं। लेकिन सर पर चुनरी बंधी होने के बाद भी कुछ तो ताक-झाक करने और किसी लड़की को घूरने से बाज नहीं आते। मेले में मौका मिलने पर कुछ और कर गुजरने को तैयार रहते हैं। एक लड़का पंडित जी से हाथ में कलाई बांधने को कह रहा था। पंडित जी बोले कि हवन के समय, धुएं में सेंक कर बाँधना चाहिए। नहीं माना तो बांधने लगे। लड़का बोला कि यह जरा सा क्या बांध रहे हो। दिखाई ही नहीं पड़ेगी तो बाँधने से क्या फायदा होगा ? मेरा दोस्त तो इतना मोटा बांधकर घूमता है कि दूर से ही सबको दिख जाती है।
एक लोग किसी दूसरे के देवता को पूज कर आ रहे थे। और होने वाले लाभ को बढ़ा-चढ़ाकर गा रहे थे। तिवारी जी से भिड़ंत हो गयी। बोले तुम कलंक हो कलंक। ये महोदय बोले जहाँ लाभ होगा वहाँ जायेंगे। तिवारी जी बोले सच ही कहा है कि ‘घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध’। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को छोड़कर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे हो। घर की परोसी हुयी थाली को छोडकर इधर-उधर कौर-कौर के लिए कुत्ते की तरह घूम रहे हो कि कोई टुकड़ा फेंक देगा। तैंतीस करोड़ में से चुन लो किसी को। जरूरत है तो सिर्फ प्रेम, श्रद्धा और विश्वास की। रही बात लाभ की तो यह श्रद्धा और विश्वास से होता है। कमल के पंखुड़ियों में बसने का आनन्द एक भँवरा ही जान सकता है, गुबुरौला नहीं। जबतक वह मल की बास अपने मन में बसाये रहता है। कमल में भी उसे पहले वाली ही बास मिलेगी। मन की शुद्धता और प्रेम व विश्वास के बिना न कोई सिधि मिलती है और न ही कोई देवता खुश होकर कुछ देते हैं।
क्या बिडम्बना है कि पूजा-पाठ, व्रत, उपवास और दर्शन आदि भी दिखावे और मौज-मस्ती के लिए होने लगे हैं। गोस्वामीजी ने कहा है कि ‘प्रभु जानत सब बिनहि जनाए, कहौ कौन सिधि लोक रिझाये’। लेकिन आज सबसे बड़ी सिधि यही है। आम लोग तो क्या बड़े-बड़े साधु-महात्मा भी इसी सिधि को बड़ी सिद्ध मानते हैं। जिसको रिझाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिए। उस ओर ध्यान ही नहीं जा पाता। हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी के विकास के लिए अंग्रेजी में कसमें खाने वाली बात हो रही है। असल चीज प्रेम, विश्वास और त्याग ही नहीं है तो क्या मायने हैं इन चीजों का । भगवान प्रेम रुपी भोजन के भूखे होते हैं। छल, द्वेष और पाखंड के नहीं। निश्छल प्रेम, श्रद्धा और विश्वास भगवान को पत्थर में से भी प्रकट कर देता
इस समय तो नवरात्रि का पावन पर्व चल ही रहा है। वैसे भी हर हफ्ते लोग कोई न कोई व्रत रख ही लेते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं। जो कहते हैं कि व्रत स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। इसलिए हर हफ्ते कम से कम एक उपवास कर ही लेना चाहिए। और यही उपवास किसी विशेष दिन कर लो तो व्रत हो जाता है। यानी एक पंथ दो काज। इन्हीं में से कुछ ज्ञानी कहते हैं कि इस समय व्रत रखने के कई लाभ हैं। यह बात विज्ञानी सिद्ध कर चुके हैं। जबकि कौन और कहाँ के विज्ञानी और कैसे तथा कब सिद्ध किया ? यह उन्हें तो क्या उनके बाप को भी नहीं मालुम है। फिर भी उनका कहना है कि इसलिए ही नवरात्रि में व्रत रखा जाता है। खैर आज, आज के ज्ञानियों का ही बोलबाला है। उन्हें ही लोग माला पहनाते हैं। जय-जयकार करते हैं।
मेरे मोहल्ले में बहुत से लोग व्रत रखते हैं। यह तो खुशी की ही नहीं बल्कि गर्व की बात है। दीगर है कि बहुत से लोग बिना कोई व्रत लिए ही व्रत रखते हैं। वैसे व्रत रखने के लिए कई चीजों का व्रत लेना पड़ता है। जैसे अन्न न ग्रहण करने का व्रत। संयमित दिनचर्या का व्रत, आदि । आराध्य-आराधना भी व्रत का एक प्रमुख अंग होता ही है। कुछ भी हो व्रत रखने वालों में मेरे मोहल्लेवालों और वालियों का कोई जोड़ नहीं है। आजकल मेरे मोहल्ले में व्रत की धूम है। विज्ञापन कराने में पैसा लगता है। नहीं तो कुछ लोग इस बात का विज्ञापन करा देते कि वे व्रत रख रहे हैं। यह नहीं कर पाते तो अगल-बगल वालों को, मिलने-जुलने वालों को बता-बता कर आत्म संतुष्टि करते हैं। दूर वालों को फोन से सूचित करने में भी नहीं पिछड़ते। आज एक लोग बताने लगे कि मैं व्रत रख रहा हूँ और वो भी पूरे नव दिन का। मैंने उन्हें याद दिलाया कि मुझे आप पहले ही दो बार बता चुके हैं।
मेरे एक पड़ोसी हैं जो व्रत नहीं रखते। लेकिन इनकी श्रीमतीजी नवों दिन का व्रत रख रही हैं। इनका कहना है कि अब नव दिन मुझे खिचड़ी खाकर ही बिताना है। कहते हैं कि किसी दिन खिचड़ी या तहरी बन जाय तो मुझे समझते देर नहीं लगती कि आज श्रीमतीजी का कोई न कोई व्रत जरूर है। इन्हें कौन समझाये कि कमसे कम खिचड़ी ही सही बना-बनाया तो मिल जाता है। खुद बनाना पड़े तो शायद खिचड़ी भी भारी पड़े। पत्नी खुद भूखी रह कर भी खिचड़ी खिला देती है तो क्या कम है ?
बहुत से लोग जिनमें महिलाएं कुछ आगे ही रहती हैं, जब व्रत आरम्भ करना होता है, उसके एक दिन पूर्व बहुत अच्छी-अच्छी पकवान बनाती हैं। जब कल से उपवास ही करना है तो क्यों न आज ही आगामी दिनों का भी खबर ले लिया जाय। इनका मानना होता है कि आज ठीक से खा लो क्योंकि कल या कल से व्रत रखना है। मानो रोज ठीक से खाते ही नहीं। कुछ लोगों के तो इसी चक्कर में पलटी भी हो जाती है। कुछ का पेट खराब हो जाता है।
मेरे पड़ोसी के पास एक से एक खबर है। बता रहे थे कि तिवारीजी कहते हैं कि व्रत रखने का मतलब यह नहीं है कि अपनी काया जला डालो। इसलिए वे दिन भर व्रत रखते हैं और शाम को पूरी-सब्जी, दाल-भात, आदि दबा कर खाते हैं। मतलब अन्न से कोई परहेज नहीं और व्रत भी रख लेते हैं। तिवारी जी का कहना है कि अन्न से परहेज होता तो भगवान अन्न बनाते ही नहीं। रही बात व्रत की तो दिन में सिर्फ एक ही बार तो खाता हूँ। रात में कुछ भी नहीं। पता नहीं व्रत के पहले रात भर खाते रहते थे क्या ? खैर नव दिन का व्रत रखते हैं।
श्रीमती शर्मा, तिवारी जी की बहुत बुराई करती हैं। इनका कहना है कि भूखे नहीं रह सकते तो न रहें। लेकिन अन्न क्यों खाते हैं ? मैं तो अन्न को हाथ नहीं लगाती। सिंगाड़े का आटा लाती हूँ। उसी की पूड़ी और आलू-टमाटर की सब्जी बनाती हूँ। सेंधा नमक इस्तेमाल करती हूँ। बाकले की दाल और तिन्नी का चावल तथा चौराई का साग। यही सब खाकर व्रत रखती हूँ। लेकिन अन्न नहीं छूती हूँ। लेकिन भूखी रहने पर भी पेट खराब हो जाता है, अपच हो जाता है। इतने परहेज के बाद भी।
श्रीमती वर्मा जी के घर में उनकी देवरानी व्रत नहीं रखती। लेकिन इनके फलाहार का सारा इंतजाम करती है। दिन भर में कम से कम डेढ़ किलो दूध, दो दर्जन केला, दो किलो सेब, संतरा, अंगूर आदि तथा जूस और दही मिला चीनी का रस, मूंगफली, बादाम, छुहारा, किसमिस इत्यादि ऊपर से। कल दोनों में कुछ खटपट हो गयी। देवरानी किसी से बोली कि दीदी के फलाहार का इंतजाम करने जा रही हूँ। आधा घंटा कम से कम लग जाता है। इस पर वर्मा जी बोलीं कि भूखी न पियासी और फलाहार के लिए लबर-लबर किये रहती हैं। अब देवरानी की बारी थी बोली इतना सब खाकर व्रत रखना हो तो कौन नहीं रख लेगा ? मैं तो हंसी-खुशी महीनों रह जाऊं। सच है व्यवस्था और इतनी व्यवस्था हो तो कुछ लोग तो कई महीने तक व्रत रखने के लिए तैयार हो जायेंगे।
बहुत से लोग दर्शन के बहाने शहर निकल जाते हैं। और पार्कों आदि में घूम कर आनंद मनाते हैं। कुछ लोग तो सिनेमा देखकर व दिखाकर मनोरंजन करते हैं। एक महिला जो पूरे दिन घूम कर आई थी। सहेली से बता रही थी, शेर देखा हाथी देखा। अब तक तो ठीक था। सुनने वाले समझते थे कि दर्शन करके आई है। लेकिन आगे और सुनने पर पता चला कि वह चिड़ियाघर देख कर आई थी। खैर कुछ लोग कुछ भी देखने को और दिखाने को ही दर्शन बोलते हैं। आज का समय ही ऐसा है कि हर चीज की परिभाषा बदल रही है।
इतना ही नहीं बहुत से नवयुवक चुनरी सर पर बांध कर घूमते हैं। शायद अपने भक्त होने का तथा अपनी भक्ति का खुलेआम एलान करने का वीणा उठा चुके हैं। लेकिन सर पर चुनरी बंधी होने के बाद भी कुछ तो ताक-झाक करने और किसी लड़की को घूरने से बाज नहीं आते। मेले में मौका मिलने पर कुछ और कर गुजरने को तैयार रहते हैं। एक लड़का पंडित जी से हाथ में कलाई बांधने को कह रहा था। पंडित जी बोले कि हवन के समय, धुएं में सेंक कर बाँधना चाहिए। नहीं माना तो बांधने लगे। लड़का बोला कि यह जरा सा क्या बांध रहे हो। दिखाई ही नहीं पड़ेगी तो बाँधने से क्या फायदा होगा ? मेरा दोस्त तो इतना मोटा बांधकर घूमता है कि दूर से ही सबको दिख जाती है।
एक लोग किसी दूसरे के देवता को पूज कर आ रहे थे। और होने वाले लाभ को बढ़ा-चढ़ाकर गा रहे थे। तिवारी जी से भिड़ंत हो गयी। बोले तुम कलंक हो कलंक। ये महोदय बोले जहाँ लाभ होगा वहाँ जायेंगे। तिवारी जी बोले सच ही कहा है कि ‘घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध’। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को छोड़कर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे हो। घर की परोसी हुयी थाली को छोडकर इधर-उधर कौर-कौर के लिए कुत्ते की तरह घूम रहे हो कि कोई टुकड़ा फेंक देगा। तैंतीस करोड़ में से चुन लो किसी को। जरूरत है तो सिर्फ प्रेम, श्रद्धा और विश्वास की। रही बात लाभ की तो यह श्रद्धा और विश्वास से होता है। कमल के पंखुड़ियों में बसने का आनन्द एक भँवरा ही जान सकता है, गुबुरौला नहीं। जबतक वह मल की बास अपने मन में बसाये रहता है। कमल में भी उसे पहले वाली ही बास मिलेगी। मन की शुद्धता और प्रेम व विश्वास के बिना न कोई सिधि मिलती है और न ही कोई देवता खुश होकर कुछ देते हैं।
क्या बिडम्बना है कि पूजा-पाठ, व्रत, उपवास और दर्शन आदि भी दिखावे और मौज-मस्ती के लिए होने लगे हैं। गोस्वामीजी ने कहा है कि ‘प्रभु जानत सब बिनहि जनाए, कहौ कौन सिधि लोक रिझाये’। लेकिन आज सबसे बड़ी सिधि यही है। आम लोग तो क्या बड़े-बड़े साधु-महात्मा भी इसी सिधि को बड़ी सिद्ध मानते हैं। जिसको रिझाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिए। उस ओर ध्यान ही नहीं जा पाता। हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी के विकास के लिए अंग्रेजी में कसमें खाने वाली बात हो रही है। असल चीज प्रेम, विश्वास और त्याग ही नहीं है तो क्या मायने हैं इन चीजों का । भगवान प्रेम रुपी भोजन के भूखे होते हैं। छल, द्वेष और पाखंड के नहीं। निश्छल प्रेम, श्रद्धा और विश्वास भगवान को पत्थर में से भी प्रकट कर देता
गए थे परदेश में रोटी कमाने
गए थे परदेस में रोजी रोटी कमानेचेहरे वहां हजारों थे पर सभी अनजाने
दिन बीतते रहे महीने बनकरअपने शहर से ही हुए बेगाने
गोल रोटी ने कुछ ऐसा चक्कर चलायाकभी रहे घर तो कभी पहुंचे थाने
बुरा करने से पहले हाथ थे काँपतेपेट की अगन को भला दिल क्या जाने
मासूम आँखें तकती रही रास्ता खिड़की सेक्यों बिछुड़ा बाप वो नादाँ क्या जाने
दूसरों के दुःख में दुखी होते कुछ लोगहर किसी को गम सुनाने वाला क्या जाने
दिन बीतते रहे महीने बनकरअपने शहर से ही हुए बेगाने
गोल रोटी ने कुछ ऐसा चक्कर चलायाकभी रहे घर तो कभी पहुंचे थाने
बुरा करने से पहले हाथ थे काँपतेपेट की अगन को भला दिल क्या जाने
मासूम आँखें तकती रही रास्ता खिड़की सेक्यों बिछुड़ा बाप वो नादाँ क्या जाने
दूसरों के दुःख में दुखी होते कुछ लोगहर किसी को गम सुनाने वाला क्या जाने
महंगाई कथा
कैसे चले गुजारा बाबा, इस महंगाई में।
चौकी के संग चूल्हा रोये, इस महंगाई में।
बैंगन फिसल रहा हाथों से,
कुंदरु करे गुमान।
चुटचुटिया कहने लगी,
मै महलों की मेहमान।
भाजी भौहें तान रही है, इस महंगाई में।
मुनिया दूध को रोती है,
मुन्ना मांगे रोटी।
पीठ तक जा पहुंचा पेट,
ढीली हुई लंगोटी।
चुहिया भी उपवास रहे अब, इस महंगाई में।
शासन पर राशन है भारी,
ये कैसी है लाचारी।
काले धंधे, गोरख धंधे,
और जमाखोरी जारी।
चीनी भी कड़वी लगती है, इस महंगाई में।
मन का दीपक जलता है,
बिन बाती बिन तेल।
कहीं दिवाली, कहीं दिवाला,
पैसे का सब खेल।
तन के भीतर आतिशबाजी, इस महंगाई में।
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चौकी के संग चूल्हा रोये, इस महंगाई में।
बैंगन फिसल रहा हाथों से,
कुंदरु करे गुमान।
चुटचुटिया कहने लगी,
मै महलों की मेहमान।
भाजी भौहें तान रही है, इस महंगाई में।
मुनिया दूध को रोती है,
मुन्ना मांगे रोटी।
पीठ तक जा पहुंचा पेट,
ढीली हुई लंगोटी।
चुहिया भी उपवास रहे अब, इस महंगाई में।
शासन पर राशन है भारी,
ये कैसी है लाचारी।
काले धंधे, गोरख धंधे,
और जमाखोरी जारी।
चीनी भी कड़वी लगती है, इस महंगाई में।
मन का दीपक जलता है,
बिन बाती बिन तेल।
कहीं दिवाली, कहीं दिवाला,
पैसे का सब खेल।
तन के भीतर आतिशबाजी, इस महंगाई में।
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Friday, March 26, 2010
300 million Indians go hungry everyday
One piece of bread a day / Was all I had,Sometimes I would break it in half,Sometimes, I could make it toast,My children's bellies full / My stomach churning,I drank water / To calm the burning,I had more than most / Reminding myself of those,Who have a handful of rice / Once a week,They know fear / They know pain,They know hunger / Far better than I ever could।
Alisha Rose's poem, Hunger, brings out the essence of a grave problem that plagues not only India, but the entire world.
Tuesday, March 23, 2010
तब चिट्ठी अब फोन बना जरिया
कहने को हम इक्कीसवीं सदी में हैं जहां ज्ञान और विज्ञान के जरिये चांद-तारों के बीच आसियां बसाने की सोच रहे हैं। ,,घर में बैठे देश-विदेश के हर पहलू से वाकिफ हो रहे हैं।,,लेकिन इसके बावजद हम अभी भी कितने पीछे हैं इसकी कल्पना करने की शायद जरूरत नहीं समझते,, इस देश में कभी मूर्तियों को दूध पिलाने के लिए होड़ लग जाती है तो कभी फल, सब्जियों और पेड़ पौधों में देव आकृति उभरने के कारण उसकी पूजा-अर्चना शुरू हो जाती है,, हमें याद है कई साल पूर्व गांवों में बोगस चिटिठयां और पोस्टकार्ड भेजने का दौर चलता था। गांव में किसी व्यक्ति के घर पोस्टकार्ड आता था जिसमें संतोषी माता के बारे में कई तरह की किंवदंतियां लिखी होती थी। साथ ही यह लिखा होता था कि अमुक स्थान पर एक कन्या ने जन्म लिखा है जन्म लेते ही वह उठ बैठी। वह स्वंय को संतोषी माता का अवतार बता रही है। उसने कहा है कि जो संतोषी माता का व्रत और उदापन करेगा उसे मनोवांछित फल मिलेगा। पोस्टकार्ड के अंत में यह लिखा होता था कि जो भी व्यक्ति इस पत्र को पढे़गा उसे 11, 21, 51 या 101 पोस्टकार्ड पर यही संदेश लिखकर भेजने होंगे। अगर ऐसा नहीं किया तो उसके परिवार में उसका जो सबसे प्रिय होगा वह मर जायेगा। गांवों में तब उतने पढ़े लिखे लोग नहीं होते थे उन्हें अपनी चिटिठयां पढ़वाने व लिखवाने के लिए साक्षरों की बेगार भी करनी पड़ती थी। ऐसी दशा में संतोषी माता का पोस्टकार्ड जिसके घर पहुंच जाता था उसकी क्या दशा होती होगी इसका सहज ही आंकलन किया जा सकता है।
बीस साल में काफी कुछ बदल गया। तख्ती से स्लेट और अब कम्प्यूटर तक की शिक्षा ग्रहण करने का दौर नर्सरी से ही चल रहा है इसके बावजूद आडम्बर, अफवाहों और अंध विश्वासों का दौर नहीं खत्म हो सका। यह हालात तब हैं जब सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों के जरिये समाज के निचले और गरीब तबके के भी लोगों को शिक्षित किया जा रहा है। ऐसा ही एक ताजा वाक्या बीत15 मार्च की रात का है जो इन दिनों गांव-गांव और शहर की गलियों में चर्चा का विषय बन गया है-..सुबह करीब आठ बजे का वक्त था जब मेरी मोबाइल की घंटी बजी। आरती ने फोन उठाया तो दूसरी लाइन पर पर उनकी माँ मुखातिब थीं। वे बोलीं एक खबर है जिसके बारे में बताना है। आरती यह बात सुनकर बहुत खुश हुई कि शायद कोई खुश खबरी मिलने वाली है। वे बहुत आतुर हुईं तो माँ जी ने बताया कि लालगंज के पास एक गाँव में एक कन्या ने जन्म लिया है उसने पैदा होते ही कहा कि सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु के लिए पांव में महावर और मांग में मोटिया सिंदूर लगाएं। यह बताने के बाद उस कन्या की मौत हो गई। केवल सीमा ही अकेली सुहागिन नहीं हैं जिनके पास इस बाबत फोन आया। यह संदेश पहले दर्जनों फिर सैंकडों और फिर अनगिनत महिलाओं तक पहुंचा। जैसे-जैसे यह संदेह पहुंचता गया वैसे-वैसे अंध विश्वास की डोर मजबूत होती गई। इस ताजे वाक्ये ने हमारे में समाज में व्याप्त अंध विश्वास की कलई एक बार फिर खोल दी है।अफवाह फैलाने का तरीका भी अब हाईटेक होता जा रहा है।
बीस साल में काफी कुछ बदल गया। तख्ती से स्लेट और अब कम्प्यूटर तक की शिक्षा ग्रहण करने का दौर नर्सरी से ही चल रहा है इसके बावजूद आडम्बर, अफवाहों और अंध विश्वासों का दौर नहीं खत्म हो सका। यह हालात तब हैं जब सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों के जरिये समाज के निचले और गरीब तबके के भी लोगों को शिक्षित किया जा रहा है। ऐसा ही एक ताजा वाक्या बीत15 मार्च की रात का है जो इन दिनों गांव-गांव और शहर की गलियों में चर्चा का विषय बन गया है-..सुबह करीब आठ बजे का वक्त था जब मेरी मोबाइल की घंटी बजी। आरती ने फोन उठाया तो दूसरी लाइन पर पर उनकी माँ मुखातिब थीं। वे बोलीं एक खबर है जिसके बारे में बताना है। आरती यह बात सुनकर बहुत खुश हुई कि शायद कोई खुश खबरी मिलने वाली है। वे बहुत आतुर हुईं तो माँ जी ने बताया कि लालगंज के पास एक गाँव में एक कन्या ने जन्म लिया है उसने पैदा होते ही कहा कि सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु के लिए पांव में महावर और मांग में मोटिया सिंदूर लगाएं। यह बताने के बाद उस कन्या की मौत हो गई। केवल सीमा ही अकेली सुहागिन नहीं हैं जिनके पास इस बाबत फोन आया। यह संदेश पहले दर्जनों फिर सैंकडों और फिर अनगिनत महिलाओं तक पहुंचा। जैसे-जैसे यह संदेह पहुंचता गया वैसे-वैसे अंध विश्वास की डोर मजबूत होती गई। इस ताजे वाक्ये ने हमारे में समाज में व्याप्त अंध विश्वास की कलई एक बार फिर खोल दी है।अफवाह फैलाने का तरीका भी अब हाईटेक होता जा रहा है।
Wednesday, February 17, 2010
चश्मा
“क्या तुम्हारी नज़र कमज़ोर हो गई?” मैंने अनिल को चश्मा लगाए देखा तो पूछ लिया।“अमाँ नहीं यार---” अनिल ने हँसते हुए कहा, “यह तो बस---यूँ ही ---शौकिया, कैसा लगता है मुझ पर?---लगता हूँ न बिल्कुल किसी डॉक्टर या प्रोफेसर जैसा ”“वास्तव में चश्मे से बहुत स्मार्ट लगने लगे हो।” मैंने कहा, “कितने रुपए खर्च हो गए---”“मुफ्त का ही समझो। तुम्हें तो पता ही है कि पिताजी स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हैं। उनके लिए सरकारी खर्च से चश्मा दिए जाने के आदेश हैं। पिताजी को बहुत मुश्किल से राजी कर सका। उनको दो-तीन बार मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास ले जाना पड़ा। वहाँ से यह प्रमाणपत्र लेना है---सरकारी खजाने से पैसा निकलवाने के लिए इतने पापड़ तो बेलने ही पड़ते हैं,---” अनिल मुस्कराया, “आओ, बाहर धूप में बैठकर चाय पीते हैं।”बाहर अनिल के पिताजी धूप में बैठे अखबार आँखों से सटाकर पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए। उन्होंने आँखें मिचमिचाकर मेरी ओर देखा। मुझे उनका झुर्रियों से भरा चेहरा गहरी उदासी में डूबा मालूम हुआ। आँखों पर काफी ज़ोर डालने के बावजूद वह मुझे पहचान नहीं पाए।मुझे मालूम न था कि अनिल के पिताजी की आँखें इस कदर कमज़ोर हो गई हैं। मैंने हैरानी से अनिल की ओर देखा। धूप में उसके चश्मे के फोटो-क्रोमेटिक ग्लासेस का रंग बिल्कुल काला हो गया था और अब वह किसी खलनायक जैसा दिखाई देने लगा था।
“बाबूजी आइए---मैं पहुँचाए देता हूँ।”एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा, “असलम अब नहीं आएगा।” “क्या हुआ उसको ?” रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।“बाबूजी, असलम नहीं रहा---”“क्या?” उसे शाक-सा लगा, “कल तो भला चंगा था।”“उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डाक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था,” उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, “कल आपको दफ्तर पहुँचा कर लौटा तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था---।”आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया---कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टाकीज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था।बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी।एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-‘रोज का मामला है---कब तक उतरता रहेगा---ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी--- अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें दिखाई देने लगी थीं---।किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था। “रुको!” एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा।रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।
टिप
हमारी गाड़ी मध्यम रफ्तार से चली जा रही थी। छोटे–छोटे कस्बों से बढ़ते हुए। जब चाय पीने की तलब हुई तो क़स्बे से बाहर एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रुकवाई गई।,,,, वहां एक गुमटी पर मालिक बैठा था,,,,, सामने चार–पांच मर्तवान में बिस्कुट, नानखटाई वगै़रह रखे थे और कुछ बेंचें पड़ी थीं,,,,, वेटर के नाम पर एक दस–ग्यारह वर्ष का लड़का था। उसे तुरंत अच्छी सी चाय बनाने के लिए बोला गया और हम लोगों ने अपना खाना–पीने का सामान निकाल लिया।चाय से फ़ारिग होकर हमने पैसे पूछे तो लड़के ने नौ रुपए बताए। हमने दस रूपए दिए। लड़का एक रुपया वापस लेकर आया। ऐसी जगह पर चूंकि टिप का प्रचलन नहीं होता है फिर भी आदत के मुताबिक़ वो एक रूपया मैंने उस लड़के को वापस रखने को दे दिए। ,,,,,,,लड़का कुछ समझ न सका। वह रूपया जाकर अपने मालिक को देने लगा। मालिक ने हम लोगों की ओर देखते हुए कहा कि ‘रख’लो ये तुम्हारा ही है।’ लड़के ने तुरंत उत्साहित होकर सामने रखे मर्तबान में से कुछ बिस्कुट निकाले और रुपया मालिक को देकर बेंच पर बैठकर बिस्कुट खाने लगा। उसे बिस्कुट खाता देखकर मुझे लगा कि मेरी टिप सार्थक हो गई।
Wednesday, January 27, 2010
होमगार्ड : अब रात्रि गश्त का भी
होमगार्डो की हालत सुधरती नहीं दिख रही है। पुलिस की गुलामी से आजिज होमगार्डो पर जिम्मेदारियों का बोझ अब बढ़ता जा रहा है और सुविधाएं व मानदेय बढ़ाने की मांग अनसुनी है। अब उन्हे रात्रि गश्त में भी लगाया जाने लगा है।
प्रतापगढ़ जिले में होमगार्डो की बड़ी दुर्दशा है। सभी को एक साथ तैनाती नहीं मिलती। केवल 50 फीसदी को ही काम मिलता है। आधे छह महीने तक बेरोजगार रहते है। जो डयूटी पाते भी है, उन्हे अपने अधिकारियों को खुश करना पड़ता है। अभी तक होमगार्डो को साधारण कार्यो में लगाया जाता था। दिन में वे थाने चौकियों में लगते थे। रात में घर चले जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। होमगार्डो को रात्रि गश्त में भी लगाया जाने लगा है। बैंक डयूटी व जनसभाओं के साथ यातायात नियंत्रण में उन्हे पहले से ही तैनात किया जाता रहा है।
आम तौर पर रात्रि गश्त पुलिसकर्मी करते थे। उनकी निगरानी सीओ और कोतवाल के जिम्मे थी। अब होमगार्डो को भी इसमें लगाया जा रहा है। इनके अलावा चौकीदारों पर भी जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ा दिया गया है। उन्हे बैंकों व बाजारों की रखवाली में भी लगाया जा रहा है। हाथ में केवल डंडा संभाले ये चौकीदार और होमगार्ड मानदेय और अन्य सुविधाओं के लिए तरसते है। ठंड के मौसम में उन्हे गर्म वर्दी भी नहीं मिलती। शासन को होमगार्डो की दुर्दशा के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है।
जिले के करीब 18 सौ होमगार्डो की तस्वीर नहीं बदल रही है। महिला होमगार्डो की समस्याएं तो और भी बढ़ी है। रात दिन की डयूटी से वे परेशान रहती
प्रतापगढ़ जिले में होमगार्डो की बड़ी दुर्दशा है। सभी को एक साथ तैनाती नहीं मिलती। केवल 50 फीसदी को ही काम मिलता है। आधे छह महीने तक बेरोजगार रहते है। जो डयूटी पाते भी है, उन्हे अपने अधिकारियों को खुश करना पड़ता है। अभी तक होमगार्डो को साधारण कार्यो में लगाया जाता था। दिन में वे थाने चौकियों में लगते थे। रात में घर चले जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। होमगार्डो को रात्रि गश्त में भी लगाया जाने लगा है। बैंक डयूटी व जनसभाओं के साथ यातायात नियंत्रण में उन्हे पहले से ही तैनात किया जाता रहा है।
आम तौर पर रात्रि गश्त पुलिसकर्मी करते थे। उनकी निगरानी सीओ और कोतवाल के जिम्मे थी। अब होमगार्डो को भी इसमें लगाया जा रहा है। इनके अलावा चौकीदारों पर भी जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ा दिया गया है। उन्हे बैंकों व बाजारों की रखवाली में भी लगाया जा रहा है। हाथ में केवल डंडा संभाले ये चौकीदार और होमगार्ड मानदेय और अन्य सुविधाओं के लिए तरसते है। ठंड के मौसम में उन्हे गर्म वर्दी भी नहीं मिलती। शासन को होमगार्डो की दुर्दशा के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है।
जिले के करीब 18 सौ होमगार्डो की तस्वीर नहीं बदल रही है। महिला होमगार्डो की समस्याएं तो और भी बढ़ी है। रात दिन की डयूटी से वे परेशान रहती
Saturday, January 9, 2010
तोहरे बालकवा के जाड़ लागता। दलित बस्ती में गांती बांधे बच्चों की टोली। उघार टांग। नंगे पांव। ठिठुरे होठ। तन पर कोई गर्म कपड़ा नहीं। हल्के-फुल्के सामान्य कपड़े। बस ऊपर से बंाधे हैं रक्षा कवच के रूप में गमछा । फिर भी जुबान पर भगवान का नाम।
मासूम निश्छल ये बच्चे। बस इतना ही जानते हैं कि रामजी धाम करेंगे। हम बच्चों की कंपकंपी जाएगी। इन्हें रामजी का ही भरोसा है, क्योंकि समाज का कोई भी पहरुआ इनकी सुध लेने नहीं आता। बस इंतजार और विश्वास के बूते जी लेने का दम। भाई वाह..।
हमारे गाँव के पास के दलित बस्ती की एक झलक : पौ फटने को है,मतलब सूर्य भगवान् निकलने को हैं .... बच्चे पूर्व दिशा की ओर अपलक निहार रहे थे। अनुनय-विनय में लगे थे ताकि भगवान सूर्य आंख खोलेंगे। बालक सलाम कर रहे हैं। ठंड से छुटकारा पाने का बच्चों का मनमोहक व बड़ा नायाब तरीका। पर पता नहीं कब सुनेंगे रामजी। कब बालकों को सुकून मिलेगा।
खैर यह तो प्रकृति की परंपरा है। पर नीति नियंता कहां हैं? उनकी नजरें पता नहीं कब इनकी ओर फिरेगी। यह भी तो शायद रामजी ही जानें।उसी रात की बात। पूस की भयानक सर्द रैन। सायं-सायं करती पछुआ हवा की चपेट में मलिन बस्तियों की झोपड़ियां व तंबू। धूप अंधेरे में सनी हुई बस्ती का सन्नाटा।
सन्नाटों को चीर रही थी हुंआ-हुंआ करती सियारों की टोली। रात को आठ बजे ही लग रहा था 12 बजने को थे। हिम्मत कर के पहुंचा था वहां। डर था। कहीं कोई चोर-चोर न चिल्ला पड़े। रामजी को गोहरा रहा था। रामजी सफल करे। गरीब बेहाल। ये गुदड़ी के लाल। पछुआ हवा की सनसनी कुछ के सीने के अंदर तक पहुंच रही थी।
कुछ बूढ़े व बच्चों की खांसी दम लेने का नाम ही नहीं ले रही थी। पल भर को कभी खांसी दम लेती तो एक बूढ़े के मुंह से भजन गाने की आवाज सुनाई पड़ने लगती। 'जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए। विधि के विधान जान हानि लाभ सहिए। सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए।'
मासूम निश्छल ये बच्चे। बस इतना ही जानते हैं कि रामजी धाम करेंगे। हम बच्चों की कंपकंपी जाएगी। इन्हें रामजी का ही भरोसा है, क्योंकि समाज का कोई भी पहरुआ इनकी सुध लेने नहीं आता। बस इंतजार और विश्वास के बूते जी लेने का दम। भाई वाह..।
हमारे गाँव के पास के दलित बस्ती की एक झलक : पौ फटने को है,मतलब सूर्य भगवान् निकलने को हैं .... बच्चे पूर्व दिशा की ओर अपलक निहार रहे थे। अनुनय-विनय में लगे थे ताकि भगवान सूर्य आंख खोलेंगे। बालक सलाम कर रहे हैं। ठंड से छुटकारा पाने का बच्चों का मनमोहक व बड़ा नायाब तरीका। पर पता नहीं कब सुनेंगे रामजी। कब बालकों को सुकून मिलेगा।
खैर यह तो प्रकृति की परंपरा है। पर नीति नियंता कहां हैं? उनकी नजरें पता नहीं कब इनकी ओर फिरेगी। यह भी तो शायद रामजी ही जानें।उसी रात की बात। पूस की भयानक सर्द रैन। सायं-सायं करती पछुआ हवा की चपेट में मलिन बस्तियों की झोपड़ियां व तंबू। धूप अंधेरे में सनी हुई बस्ती का सन्नाटा।
सन्नाटों को चीर रही थी हुंआ-हुंआ करती सियारों की टोली। रात को आठ बजे ही लग रहा था 12 बजने को थे। हिम्मत कर के पहुंचा था वहां। डर था। कहीं कोई चोर-चोर न चिल्ला पड़े। रामजी को गोहरा रहा था। रामजी सफल करे। गरीब बेहाल। ये गुदड़ी के लाल। पछुआ हवा की सनसनी कुछ के सीने के अंदर तक पहुंच रही थी।
कुछ बूढ़े व बच्चों की खांसी दम लेने का नाम ही नहीं ले रही थी। पल भर को कभी खांसी दम लेती तो एक बूढ़े के मुंह से भजन गाने की आवाज सुनाई पड़ने लगती। 'जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए। विधि के विधान जान हानि लाभ सहिए। सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए।'
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