Monday, June 8, 2009

अब नहीं होतीं दुल्हनें डोली में विदा

chalo रे, डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई। डोली के साथ दुल्हन की विदाई का मार्मिक चित्रण करता यह फिल्मी गीत गाहे-बगाहे रेडियो-टीवी में सुनने को भले ही मिल जाए,,,, हकीकत यह है कि आज कल हमारे समाज में डोली में दुल्हन को विदा करने की परंपरा खत्म सी हो चुकी है। इसकी जगह छोटी-बड़ी कारों ने ले ली है। डोली उठाने वाले कहारों को रोजगार की नई राह पकड़नी पड़ रही है। जनकपुर में स्वयंवर में भगवान शिव का धनुष तोड़कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जनक नंदनी सीता से शादी रचाई। शादी के बाद डोली से ही दुलारी जानकी ससुराल अयोध्या गई थी। .....आधुनिकता के लगातार बढ़ते प्रचलन व हाईटेक युग ने डोली प्रथा का वजूद मिटा दिया है।
उधर, डोली प्रथा के मिटते वजूद ने कहारों की जिंदगी पर ब्रेक लगा दिया है। हमारे गांव के पास कहारों की बस्ती होती थी। कहारों की आजीविका का एकमात्र साधन डोली ही थी। जब प्रथा गुम होने लगी और डोली पुरानी बात तो कहारों ने आजीविका की राह बदल डाली।
जहां अब डोलियां बननी बंद हो चुकी है और कहार बड़ी तादाद में रोजगार के लिए या तो दूसरे धंधे में लग चुके हैं या बड़े शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। हां, अब डोलियां भले न दिखें, पर डोली सजा के रखना, आएंगे तेरे सजना.. जैसे गीत खूब बज रहे हैं।.........

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